सैन समाज एवं उसकी यथास्थिति / Sain society and its status quo : इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत में नायी समाज की अपनी गौरवपूर्ण स्थिति रही है। इसका इतिहास इतना उज्ज्वल रहा है कि भारत भूमि के सारे समाज, धर्म दर्शन और प्रतिष्ठित राजवंशों सभी में इस समाज का महान योगदान रहा है। भारतीय इतिहास और संस्कृति इस समाज की ऋणी है। इतिहास, पुराण, शास्त्रों के अध्ययन से जो ज्ञात होता है, वह इस प्रकार है- प्राचीन वैदिक कालीन समाजों के साथ नायी समाज का उल्लेख मिलता है।
संसार के प्राचीनतम धर्मग्रन्थों की रचना करने वाले महान महर्षियों में इस समाज के महान महर्षि हुए हैं।
भारत भूमि के अनेक महान धर्मों में जैसे शैव, वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म और जैन धर्म इत्यादि में इस समाज के महान संत और प्रवर्तक हुए हैं।
नाई ठाकुर समाज भारत की धरती के प्राचीनतम क्षत्रियधर्मा समाजों में प्रतिष्ठित राजवंशी हैं (आज भी कुछ प्रदेशों में नाई समाज के व्यक्तियों को ‘ठाकुर’ नाई ठाकुर नाम से पुकारते हैं। और गोत्र भी हैं।)
भारतीय इतिहास का प्रथम विशाल मगध साम्राज्य नाई समाज द्वारा स्थापित किया गया था। इस प्रकार का गौरव और यश भारत-भूमि में अन्य किसी भी समाज को प्राप्त नहीं है। इस समाज की अनेक शाखाओं और गोत्रों के राजे-महाराजे और जागीरदार अधिपतियों ने भारत- भूमि पर राज्यों की स्थापना की है और राज्यसत्ता भोगी है।
भारतीय इतिहास इन बातों का साक्षी है। अति प्राचीनकाल से नाई जाति एक ही जाति और समाज है। इसमें कोई भेद कहीं किसी भी शास्त्र में नहीं बताये गये हैं। जब से इस जाति समाज में एकता और संगठन शक्ति उत्पन्न हुई, शक्ति से सत्ता हासिल हुई।
उनके अनेक राज्य एवं जागीरदारियाँ स्थापित हुईं। लेकिन जैसा अक्सर राजनीति में होता है, समाज के ठेकेदारों ने इस समाज को क्षीण करने के लिए इसे टुकड़ों में बाँटना शुरू कर दिया और अनेक प्रकार की कहानियाँ बना-बनाकर इस समाज में भेद उत्पन्न किया गया और यह कोशिश की गई कि इस समाज की उत्पत्ति कथाएँ ऐसी लिखी जाएँ, जिससे इस जाति को हीन बताया जाए, ताकि इस समाज के लोगों में हीन भावना भर जाये, वे अपने आपको हीन समझने लगें और मानसिक गुलामी का शिकार हो जायें और पिछले हजार वर्षों से यही होता चला आया, किन्तु आज भी इसकी स्थिति मांगलिक पारिवारिक कार्यों में ब्राह्मण पौरोहित्य कार्य के समान है। मानव समाज के अन्य लोगों की स्वार्थपरता वश इसके प्रति दृष्टिकोण को बदला जाने लगा, ताकि इन्हें नीचा दिखाकर इनसे सेवा और बेगार ली जा सके।
भारत की सामाजिक सभ्यता सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्रारम्भ होती है, जिसकी समयावधि 3000 ईसा पूर्व से 1500 ईसापूर्व तक मानी जाती है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सिन्धु सभ्यता की राजधानियाँ थीं। डॉ. विमलचन्द पाण्डेय के अनुसार सैंधव समाज व्यक्तियों के कर्मानुसार चार वर्गों में विभाजित था –
( 1 ) विद्वान, (2) योद्धा, (3) व्यापारी, (4) कारीगर एवं श्रमिक। इसी प्रकार ऋग्वैदिक काल में भी समाज को व्यक्तियों के कर्मानुसार विभाजित किया हुआ था। वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था उदार थी एवं व्यक्तियों के कर्मों पर आधारित थी । किसी भी विशेष वर्ण वाला व्यक्ति अपने कर्मानुसार दूसरे वर्ण में परिवर्तित हो जाया करता था। इसके पश्चात् जब उत्तर वैदिक काल, जिसका समय लगभग 1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक माना जाता है।
डॉ. एस. एल. नागोरी एवं श्रीमती कान्ता नागोरी के अनुसार वैदिक काल में अनेक कर्मकाण्डों एवं आडम्बरों का प्रवेश हो जाने के कारण सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था बहुत जटिल होती गई। सामाजिक वर्णों का विभाजन व्यक्ति के जन्म के आधार पर शुरू हो गया। इसके बाद से वर्ण व्यवस्थाएँ जटिल होती गई और जो वर्ण सेवा कार्यों में लगे होते थे, शिक्षा उनसे दूर होती गई। धर्म, यज्ञ, संस्कार, सीमित व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित होते चले गये । इसके पश्चात् जाति व्यवस्था को लेकर मानव सभ्यता में जो बातें सामने आईं, वे आज सब देख-भुगत रहे हैं।
जहाँ तक बात नाई जाति की है, तो इसका भूतकाल अति पुष्ट रहा है, नेतृत्वकारक रहा है। क्योंकि वर्तमान नाई शब्द अपभ्रंश है, जो ‘नाय’ से बना नाय का अर्थ नेता है। नाम शब्द नेता के अर्थ में आता है। नाय से नायी शब्द की ‘नी’ धातु की वृद्धि प्राप्त होकर ‘नै’ हुआ, फिर इसमें ‘घञ’ प्रत्यय लगा।’ घञ’ प्रत्यय में ‘घ्’ और ‘ब्’ का लोप होकर ‘अ’ रह गया। फिर ‘नै’ ‘अ’ को संधि प्राप्त होकर नाम पद सिद्ध हुआ, जिसका अर्थ ‘नेता’ होता है। नेता का अर्थ ‘नेतृत्व’ करने वाला है। जो न्यायपूर्वक ‘नेतृत्व’ करे, उसी को ‘न्यायी’ या ‘नायी’ कहते हैं। यही नायीं जातिवाचक शब्द बिगड़कर नाई हो गया, जिसे कृषि के औजार नाई अर्थात् दूफन कहा जाता है। मुख सुख की दृष्टि से न्यायी का नायी और नायी का नाई हो गया और फिर प्रचलित अर्थ शब्दकोशों में नायी के साथ नाई को भी सम्मिलित कर लिया गया, जैसे वर्तमान में ‘सैन’ को ।
इस बात का उल्लेख करना यहाँ इसलिए जरूरी हो गया कि हम जातीय व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को समझें और जाति व्यवस्था को लेकर जो भेद व नफरत, हीनता बोध आता है वह दूर करें। क्योंकि ये बात भी समझ लेना चाहिए कि वेदों, उपनिषदों और मनुस्मृति में जाति शब्द कहीं इस रूप में नहीं आया है, जैसी प्रचलित प्रथा है। केवल वर्ण-व्यवस्था रही है। जाति के वर्तमान शब्द केवल कार्यों के द्योतक हैं (वे आज के जाति के अर्थ में कभी प्रयुक्त नहीं हुए) ।
नाई समाज की प्राचीन काल से स्थिति का आकलन करें, इसकी सामाजिक स्थिति व कार्यों के बारे में, तो वह संक्षेप में इस प्रकार प्राप्त होती है-
नायियों के आद्य पुरुष ‘वायु’ और ‘सविता’ ऋषि हैं। (सामवेद के उद्गाता सविता ऋषि), देवर्षि नारद (मुम्बई के पुरन्दर एण्ड क. के मुद्रणालय में शकाब्द 1818 सन् 1896 ईस्वी में एक मराठी ग्रन्थ ‘मूल स्तम्भ’ के पृष्ठ संख्या – 94, अध्याय-13, पद- 36 पर ‘न्हावी वंश नारदा च’ अर्थात् नायी वंश नारद का है।) वायुपुत्र हनुमानजी, कोंडुकोपनिषद् के रचयिता महर्षि कोंडिल्य जिनको अपनी तपस्या व ब्रह्मज्ञान से महर्षि पद प्राप्त हुआ था, नवधा भक्ति के उपदेशक महर्षि मातंग (महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय – 27 ), दक्षिण में वैष्णव मत के प्रवचनकार जो दार्शनिक व धर्मोपदेशक रहे ‘संत हड़प्पण’, महाराष्ट्र की उज्ज्वल संत परम्परा में वारकरी सम्प्रदाय के श्री समर्थ नागाजी महाराज, पंजाब में गुरूनानक के शिष्य ‘मरदाना ‘ जो नापित पुत्र थे।
गुरु गोविन्द सिंहजी के पंज प्यारों में एक रत्न भाई साहिबचन्द्र नाई जो 37 वर्ष के बिदर (कर्नाटक) के थे, जिनका नाम गुरू ने साहिब सिंह रखा। संत सैनजी सैनाचार्य स्वामी अचलानन्दजी महाराज, उप सैनाचार्य- वैष्णव सैनाचार्य धर्मधाम गीता भवन- मन्दसौर के संस्थापक रामकुमाराचार्य अनुरागी बापु, विश्व सैनाचार्य महामण्डलेश्वर आचार्य स्वामी देवेन्द्रानन्द गिरिजी महाराज बहादुरगढ़ (हरियाणा), बोरी (प्रतापगढ़, राजस्थान) में चमत्कारिक संत कारूबावजी का स्थान जहाँ वर्तमान में मंगलाचार्यजी भगत विराजमान हैं।
भारत के चक्रवर्ती सम्राटों में नाई समाज के चक्रवर्ती सम्राट व राजवंश हुए हैं, जिनका संक्षेप में उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है। इसमें सर्वप्रथम केन्द्रीय शासन पद्धति के जनक प्रथम चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनन्द का विशेष उल्लेखनीय अवदान है। 364 ईसा पूर्व मगध (आधुनिक बिहार) में एक ऐसे महान सम्राट का उदय हुआ, जिसने तत्कालीन समाज के सर्वाधिक परिश्रमी और उपेक्षित लोगों के जीवन जीने की पद्धति को ही परिवर्तित कर दिया और उनको आत्म सम्मान के उच्च स्थान पर लाकर आसीन कर दिया। उस प्रकाश पुंज का नाम महापद्मनन्द था, जो विश्व इतिहास में एक कुशल साम्राज्य निर्माता, प्रशासक तथा राजनीतिज्ञ के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। यह महान सम्राट नाई थे।
इन्होंने भारत में विस्तृत सभी षोडश महाजनपदों को सुसंगठित कर प्रथम बार सुदृढ़ केन्द्रीय शासन की नींव डाली तथा आगे आने वाली पीढ़ी के शासकों को शासन करने की उत्कृष्ट पद्धति सिखलायी। इनके काल में वर्ष, उपवर्ष, पाणिनी, कात्यायन, वररुचि, ब्यादि आदि महान विद्वान हुए ।
महापद्मनन्द की मृत्यु के बाद उसका योग्य पुत्र धननन्द 336 ईसा पूर्व राजसिंहासन पर आसीन हुआ। परम्परावादी व्यवस्थाकारों ने षड्यंत्रों, प्रतिषड्यंत्रों के माध्यम से नन्द शासकों को अपदस्थ करने का प्रयास किया। चाणक्य ने सम्राट नन्द की उपपत्नी मुरा के पुत्र चन्द्रगुप्त को चुना। चन्द्रगुप्त के रूप में उसे एक योग्य राजकुमार मिल गया। युद्ध में अपने पिता की हत्या के बाद 322 ईसा पूर्व वह सम्राट बना । चन्द्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार, बिन्दुसार के बाद अशोक ने सत्ता सँभाली। अशोक महान सम्राट था, यह सर्वविदित है। इस वंश का अन्तिम शासक बृहद्रथ हुआ।
बृहद्रथ परम्परावादी व्यवस्थाकारों की रणनीति का शिकार हुआ और 184 ईसा पूर्व एक षड़यंत्र के तहत उसकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार 364 ईसा पूर्व से 184 ईसा पूर्व तक अबाध रूप से यह शासन चला। पुराणों में नन्द शासकों के उत्थान को निम्न वर्ग के उत्कर्ष का प्रतीक माना गया है। इस प्रकार नन्द वंशीय महान सम्राटों ने समानतावादी, नैतिकवादी, करुणामयी, न्यायप्रिय, जातिविहीन, समतावादी विचारधारा को समाज में प्रवाहमान बनाया। ऐसे रहे हैं ये अखण्ड भारत के निर्माता ।
इसी प्रकार अन्य छोटे-छोटे राजवंश भी हुए हैं। इसी के साथ गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, भुज प्रदेशों में भी नाई राजवंश रहे हैं। गुजरात के राज्य हलवद के राजा रायसिंह के व्यक्तिगत सलाहकार और राज्याधिकारी एक मशहूर अजाजी खवास थे (1750 ईस्वी)। अजाजी खवास के पुत्र चतुर व बुद्धिमान थे। अजाजी के तीन पुत्रों में से मेहरामा को नावा नगर का प्रमुख बना दिया (1768 ईस्वी) | वीर मेहरामा अधिपति ने ओखा, पोरबन्दर, जूनागढ़ पर आक्रमण कर जीत लिया।
कच्छ के वजीर फतेह मोहम्मद से संधि की। 1792 ईस्वी में काठियावाड़ पर आक्रमण कर उसे अपने राज्य में मिला लिया । माण्डवी का अधिपति भी उस समय रामजी खवास थे (1782 ईस्वी)। इस प्रकार मेहरामा गुजरात, काठियावाड़ का एक छत्र शक्तिशाली राजा बन गया था। ईस्वी सन् 1800 में मेहरामा की मृत्यु हुई। इस प्रकार भारतीय इतिहास में गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, भुज का यह सैन/ नाई / खवास राजवंश अपने इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। नाई जाति में कई राजवंशों में वीर योद्धा भी हुए हैं, जैसे किसना नाई, कुंभा नाई आदि स्वतंत्रता संग्राम सैनानी हुए हैं।
भारतीय नाई समाज एवं यथास्थिति में उसकी गौरवशाली परम्परा का उल्लेख करना भी जरूरी हो गया था। समय परिवर्तनशील है और समय के मान से परिस्थितियाँ बदलती हैं। भारत में जब से विदेशी आक्रान्ताओं का प्रवेश हुआ और भारतीयों को आपस में तोड़ने, पद दलित, अपमानित, अत्याचारों के दौर ने नाई समाज की स्थिति को भी जर्जर कर दिया। क्षौर कार्य जैसे पौरोहित्य कार्य को यजमान वृत्ति में बाँधकर रख दिया। फलतः भारत के कुछ प्रदेशों, प्रदेशों के कुछ क्षेत्रों में आजीविका के लिए सेवा कार्य अपनाने से दोयम दर्जे का समझा जाने लगा।
भूतकाल तो अच्छा रहा, किन्तु बाद में शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक व राजनीतिक स्थिति में गिरावट आती गयी। यह जाति पिछड़ती गयी। जो भी कोई आगे बढ़े हैं, तो वे अपने दम पर। राजनीति में बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का नाम भुलाया नहीं जा सकता। कई सैन बन्धु विदेशों में भी अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अच्छे पदों पर हैं। ब्रिटेन में भारत मूल के लार्ड नवनीत ढोलकिया जैसे व्यक्तित्व इसके उदाहरण हैं।
भारतीय सभ्यता में उत्तर वैदिक काल से जब वर्ण व्यवस्था बलवती होती गई, तब से हिन्दू धर्म व संस्कृति में परम्परा को पल्लवित किया जाने लगा। हिन्दी जातियों में गोत्र उपजातियाँ अपने निवास के क्षेत्र, कार्य, व्यवसाय के अनुसार पुकारी जाने लगी। इसीलिए आप देखते हैं कि कई जातियों में एक-सी गोत्र पाई जाती हैं। सभी जातियों में विशेषकर हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र प्रचलित हैं। एक ही गोत्र, एक ही देवी की पूजा, एक ही भेरू बाबजी, एक ही देराणी, वृक्ष की पूजा करने वाले आपस में भाई-बन्धु माने जाते हैं। अतः एक ही जाति में व्यक्ति अपने गोत्र टालकर विवाह सम्बन्ध तय करते हैं।
विद्वानों का निष्कर्ष है कि गोत्रों की उत्पत्ति किसी जाति, वंश के स्थान विशेष या मातृभूमि के जुड़ने से हुई है। सभी गोत्रों की उत्पत्ति स्थान विशेष से हुई हो, ऐसा नहीं है। जिसमें गौतम, कश्यप, वसिष्ठ, पुलत्स्य, पुलह, भारद्वाज, अत्री शांडिल्य आदि शामिल हैं। नायी समाज में कई जगह ये गोत्रे बहुतायत में मिलती हैं। धर्म की दृष्टि से देखें तो सम्पूर्ण सृष्टि की रचना ब्रह्मा ने की, इसलिए हम सभी चराचर जीव उस परब्रह्म की संतानें हुईं। इस तरह मानव की पहचान गोत्र ऋषियों के नामों पर आधारित है।
कालान्तर में यह ऋषि-वंश परम्परा कर्म के कारण जाति उत्पत्ति के साथ बिखण्डित होती चली गई । हिन्दू विवाह नियम परम्परा का यही नियम गोत्र व वंशावली परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में कारगर सिद्ध हुआ है।
नाई समाज में गोत्रों की संख्या काफी है। आज समाज में कहीं गोत्र मिलते ही भाई-बन्धु या अन्य रिश्ते बन जाते हैं और एक ही जाति में गोत्र न मिलने पर शादी सम्बन्ध तय हो जाते हैं। समस्त भारत में नाई शब्द व्यापक और प्रचलित है, तथापि विभिन्न राज्यों में विभिन्न नाम इस जाति के लिए प्रयोग किए जाते हैं, यथा – मध्यप्रदेश – छत्तीसगढ़ में सैन, नाई, सविता, वप्ता । उत्तरप्रदेश में- नायी, नायी पांडे, पांडे ब्राह्मण, नायी ब्राह्मण, सैन, सविता । राजस्थान में नाई, सैन, नाई ठाकुर, खवास, वेद्यनाई। दिल्ली – पंजाब – हरियाणा में नाई, सविता, सैन, नायी- ब्राह्मण, बारबर, राजा, महता, ठाकुर आदि।
बिहार में नायी, नापित, हज्जाम ठाकुर, नायी ब्राह्मण। बंगाल में- नापित, हज्जाम, नाऊ, नायी, सवितृ ब्राह्मण । मैसूर – नामिन्द। कश्मीर में- हज्जाम, नापित, भण्डारी, नायी, नायी ब्राह्मण। उड़ीसा – भद्री, वरिक, भण्डारी । आसाम – नायी, चन्द्र वैद्य गुजरात में वाणन्द, बालन्द नाडिग, केलसी, नायी ब्राह्म, नाभिक कोचीन में- अम्बटन, मारायन, नायर, बेलकिहल हैदराबाद में न्हावी, मंगल, केलसी, नायी, हज्जाम, सविता ।
मद्रास में – मरुथवर, कसूवन, भण्डारी, कबूरियन, बारवर, नायी, नायी – ब्राह्मण, मंगल, अम्बटन। महाराष्ट्र में- खवास, नामिन्दा, कैलासी, नायड़े, महाल, मंगला, नामिन्दा । आन्ध्र में- चित्तूर, कडाया, गुंटूर, कृष्णा, नैलौर, नायी – ब्राह्मण । गुरुदासपुर में- याजक, याज्ञिक, नायी- ब्राह्मण। कहीं-कहीं शीलवन्त, मोरासु, उप्पिना, मारू – नायी, केकुलम नेविनि, डोगरा आदि अनेक नाम है।
संस्कृत ग्रन्थों में- कुन्तल, क्षुरौ, मुन्डी, दिवाकीर्ति, अन्तवसायी, ग्रामणी ये छः नाम हैं। ऋग्वेद में- ग्रामणी, नेता, नय, नाय नाम है। क्षौरकार को सविता कहा गया है। अमरकोष में- ‘ग्रामणीर्नापिते पुंसी’ ग्रामणी का अर्थ नापित कहा है।
जब से ‘सैन परिचय’ मासिक जैसी पत्रिका 1977 से निरन्तर प्रकाशित हो रही है, तब से व सैन भक्ति पीठ की स्थापना आदि से सम्पूर्ण भारतवर्ष में संत सैन जी के नाम से ‘सैन’ नाम नाई/नायी जाति का पर्याय बन चुका है, सर्वाधिक प्रयोग में लिया जाने लगा है। अब प्रमुखता पूरे भारत वर्ष में नाई नायी, सैन, सयन, सविता, नायी-ठाकुर, ठाकुर, खवास, बालद बहुतायत में प्रचलित हो गए हैं।