भोजपुरी का शेक्शपीयर

भिखारी ठाकुर

Biography of Bhikhari Thakur / भिखारी ठाकुर का जीवन परिचय : भोजपुरी के शेक्सपियर के नाम से मशहूर भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को सारण जिले के कुतुबपुर (दियारा) गांव में एक नाई परिवार में हुआ था। उनके पिता और माता का नाम क्रमशः दल सिंगार ठाकुर और शिवकली देवी था। उनका एक छोटा भाई था जिसका नाम बहोर ठाकुर था।

भिखारी ठाकुर का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है, खास कर बिहार और भोजपुरी समाज में। वे बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाई थी।

वह जीविकोपार्जन के लिए खड़गपुर गया था। उसने बहुत कुछ कमाया था, लेकिन नौकरी से संतुष्ट नहीं था। रामलीला ने उसे प्रभावित किया था। वह जगन्नाथ पुरी गया। तब तक वह किसी और व्यक्ति में परिवर्तित हो चुका था।

उन्होंने अपने पैतृक गांव में डांस पार्टी की स्थापना की और रामलीला खेलना, गीत गाना शुरू किया तथा सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे। अब वे नाटक, गीत और किताबें आदि लिखते हैं। किताबों की भाषा सरल थी और लोगों को आकर्षित करती थी। वाराणसी, छपरा और हावड़ा से किताबें प्रकाशित होती थीं।

उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया था । उनकी साहित्यिक कृतियाँ जिनमें नाटक (बिदेसिया, बेटी-बेचवा, बिधावा बिलाप आदि) और गीत शामिल हैं, आज भी सराहे जाते हैं और गाए जाते हैं। 10 जुलाई, 1971 को 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

आइये जानते भोजपुरी के शेक्पियर भिखारी ठाकुर का जीवन परिचय

भिखारी ठाकुर का जन्म सारण जिला के कुतुबपुर दियारा जो की सारण जिला के मुख्यालय छपरा से 13 km की दूरी पर है बिहार राज्य मे स्थित है l भिखारी ठाकुर भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे। वे बहु आयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। वे भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यों के लिये प्रसिद्ध हैं। वे एक महान लोक कलाकार थे जिन्हें ‘भोजपुरी का शेक्शपीयर’ कहा जाता है।

वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया।

भिखारी ठाकुर बीसवीं सदी के रंगमंच बिदेसिया के निर्माण के लिए सबसे ज़्यादा जाने जाते हैं। भिखारी ठाकुर एक नाई (पिछड़ी जाति) थे जिन्होंने घर-बार छोड़कर अभिनेताओं का एक समूह बनाया जो टकराव के मुद्दों से निपटते थे: पारंपरिक और आधुनिक के बीच, शहरी और ग्रामीण के बीच, संपन्न और वंचित के बीच। भोजपुरी के प्रशंसक देशी दर्शक भिखारी ठाकुर को इस विधा के अतुलनीय संस्थापक पिता, प्रचारक और प्रतिपादक के रूप में मानते हैं। वे एक लोक कवि, लोक गायक, लोक नर्तक और अभिनेता थे।

बिदेसिया की कथा को जीवंत नृत्य और मधुर संगीत के माध्यम से तथा ऐसी जीवन-सदृश्य कहानियों के आधार पर इतना प्रभावी बनाया गया है कि यह क्षेत्र के गरीब संयुक्त परिवारों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है।

भोजपुरी का स्वाद इतना नाटकीय है कि वे एक प्रदर्शन देखने के लिए लंबी यात्रा करने से भी नहीं हिचकिचाते। कई अन्य लोक रूपों की तरह, बिदेसिया में महिला की भूमिका पुरुष अभिनेता-नर्तक निभाते हैं। आम तौर पर वे धोती या शर्ट पतलून पहनते हैं, लेकिन वे लंबे बाल रखते हैं और इसे महिलाओं के बालों की तरह सजाते हैं। नृत्य इस रूप का एक अभिन्न अंग है, वास्तव में यह प्रदर्शन का सार है, जो बड़े दर्शकों को आकर्षित करने के लिए नृत्य से शुरू होता है। एक बार यह हो जाने के बाद बिदेसिया शुरू होता है।

अभिनेता, नृत्य के अलावा विभिन्न नाटकीय संदर्भों में महिला भूमिकाएँ निभाते हैं। मनोरंजन के विभिन्न अन्य साधनों के आगमन के बावजूद, बिदेसिया भोजपुरियों के लिए सबसे लोकप्रिय और ताज़ा विश्राम है। अपने नाटकों के माध्यम से, उन्होंने गरीब मजदूरों के मुद्दों को आवाज़ दी और भोजपुरी समाज में महिलाओं की खराब स्थिति के बारे में जागरूकता पैदा करने की कोशिश की। उन्होंने हमेशा एक ही सांस्कृतिक धुन में जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़े होकर बात की। इस क्षेत्र के लोग स्थानीय सांस्कृतिक परंपराओं में उनके योगदान को बहुत पसंद करते हैं और उन पर गर्व महसूस करते हैं। उनके नाटक और उनकी नाट्य शैली अपनी लयबद्ध भाषा, मधुर गीतों और आकर्षक संगीत के लिए बहुत लोकप्रिय हैं।

उनके नाटक भोजपुरी संस्कृति का सच्चा प्रतिबिंब हैं। उनकी लगभग सभी रचनाएँ निम्न जातियों/वर्गों की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं पर केंद्रित थीं। उन्होंने भोजपुरी समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों और अन्य समस्याओं पर अपने विचार रखने के लिए व्यंग्य और हल्की-फुल्की टिप्पणियों का अधिकतम प्रभाव डाला।

उनका जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार के सारन जिले के कुतुबपुर गांव में हुआ था। उनकी मां का नाम शिवकली देवी और पिता दलसिंगार ठाकुर थे। वे नाई जाति से थे, जो भारतीय समाज में सबसे पिछड़ी जातियों में से एक है। उनकी जाति का पारंपरिक काम बाल काटना और ब्राह्मणों की शादी और मृत्यु समारोह में सहायता करना था।

उन्हें गांव और आस-पास के इलाकों में समारोह (शादी और मृत्यु के मामलों में) और अन्य संदेश भेजने और वितरित करने के लिए भी दिकू द्वारा इस्तेमाल किया जाता था। वे पारंपरिक-सामंती गांव व्यवस्था में डाक कर्मचारियों की तरह काम करते थे।

अपनी एक रचना में वे कहते हैं: “जाति हजम मोरे कुतुबपुर मोकम… जाति-पेशा बाटे, बिद्या नहीं बाटे बाबूजी”। इसमें वे अपनी जाति के बारे में बात करते हैं और इस बात पर खेद व्यक्त करते हैं कि उनकी जाति के लोग अक्षर या वर्णमाला के महत्व को जाने बिना ही सभी को पत्र वितरित कर रहे हैं।

वे शिक्षा की शक्ति को स्पष्ट रूप से समझते थे और अपने लोगों को निरक्षर होने और दिकुओं के साथ जजमानी (संरक्षक-ग्राहक) संबंधों से बंधे होने के लिए लगातार डांटते थे।

बिहार और अन्य भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के लोगों के बीच उन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। लेकिन तथाकथित मुख्यधारा की ‘संस्कृति’ ने हमेशा की तरह उनके योगदान के बारे में चुप्पी साधे रखी है, यहां तक ​​कि उनके नाम का उल्लेख करने से भी सक्रिय रूप से परहेज किया है।

इसलिए, अब तक उनके कार्यों का कोई गंभीर दस्तावेज नहीं है। वे भोजपुरी भाषा और संस्कृति के सबसे बड़े ध्वजवाहक हैं। भोजपुरी झारखंड सहित बिहार के बड़े हिस्से, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाल के कुछ हिस्सों में व्यापक रूप से बोली जाती है। वे न केवल इस भाषाई क्षेत्र में लोकप्रिय हैं, बल्कि उन शहरों में भी लोकप्रिय हैं जहां बिहारी मजदूर अपनी आजीविका के लिए पलायन करते हैं। कई लोगों ने सामंती और ब्राह्मणवादी मूल्यों को कायम रखने के लिए उनकी आलोचना की, जो कुछ हद तक सही भी हो सकती है।

उनके कार्यों में कुछ ब्राह्मणवादी और सामंती मूल्यों के समर्थन और वैधता के बावजूद, उन्होंने हमेशा एक न्यायपूर्ण और समतावादी समाज की दृष्टि का बीड़ा उठाया और यही वह अंतर है जिसे हमें समझना होगा। ब्राह्मणवादी मूल्यों की इन मूर्खतापूर्ण और निरर्थक छायाओं के तहत समतावादी और उपेक्षित समाज की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

हालाँकि उनके नाटक गाँव और ग्रामीण समाज के इर्द-गिर्द घूमते और विकसित होते थे, फिर भी वे कोलकाता, पटना, बनारस और अन्य छोटे शहरों जैसे बड़े शहरों में बहुत प्रसिद्ध हुए, जहाँ प्रवासी मजदूर और गरीब कामगार अपनी आजीविका की तलाश में गए थे।

राष्ट्र की सभी सीमाओं को तोड़ते हुए उन्होंने अपनी मंडली के साथ मॉरीशस, केन्या, सिंगापुर, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, युगांडा, म्यांमार, मेडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका, फिजी, त्रिनिदाद और अन्य स्थानों का भी दौरा किया जहाँ भोजपुरी संस्कृति कमोबेश फल-फूल रही है।

क्षेत्रीय सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की जीवंत विधा के रूप में बिदेसिया, ऊबड़-खाबड़ और अपरिष्कृत रूप तथा विविधता से भरपूर, समाज के कमजोर वर्ग की सांस्कृतिक विरासत की एक सशक्त अभिव्यक्ति है। भिखारी ठाकुर ने अपनी कलात्मक प्रतिभा और कड़वे अनुभवों के माध्यम से रामलीला, रासलीला, बिरहा यात्रा और अन्य प्रदर्शनात्मक तत्वों से तत्वों को उठाकर इसे विकसित किया और इसे बिल्कुल नए और अद्भुत शैली में ढाला, जिसे अब बिदेसिया के रूप में जाना जाता है।

बिदेसिया का अर्थ है पलायन करने वाले लोग, जो आजीविका की तलाश में अपना घर-बार छोड़ कर चले गए, लेकिन बड़े संदर्भ में भिखारी के बिदेसिया न केवल जमीन से बल्कि अपनी संस्कृति से भी पलायन कर गए थे। कई लोग बिदेसिया शैली और उनके नाटक बिदेसिया के बीच भ्रमित हो जाते हैं। दरअसल, उन्होंने अपने सभी नाटक बिदेसिया शैली में किए जो नौटंकी से काफी मिलता-जुलता है

उन्होंने दस प्रमुख नाटकों का लेखन, निर्देशन और प्रदर्शन किया है; इसकी शुरुआत एक गैर-गंभीर नाटक वसंत-बहार से हुई, जो धोबी-धोबिन नृत्य पर आधारित था, जिसे उन्होंने कहीं देखा था।

1971 में ठाकुर की मृत्यु के बाद, उनकी नाट्य शैली और भोजपुरी भाषा के उपयोग का संगीत उद्योग द्वारा लगातार दुरुपयोग किया जा रहा है, जिसमें यौन व्यंग्य से भरे भोजपुरी गाने और नाटक तैयार किए जा रहे हैं। यह भिखारी ठाकुर द्वारा अपनी कला के माध्यम से प्रचारित सभी आदर्शों के खिलाफ ब्राह्मण-बनिया गठबंधन की प्रतिक्रांति की तरह है।

दिकुओं का सामाजिक वास्तविकता पर आधारित कोई संबंध नहीं है और वे हमेशा सांस्कृतिक अश्लीलता के आधार पर अधिकतम मौद्रिक लाभ प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हैं।

इस बाजार ने भिखारी ठाकुर के सामाजिक-आर्थिक उन्मुख नाटकों को महज यौन फंतासी और सस्ते मनोरंजन की ओर मोड़ दिया। यह दिकुओं के रचनात्मक दिवालियापन को दर्शाता है जिसके खिलाफ हम दलित-बहुजनों को आगे आना चाहिए और अपनी दिकु विरोधी विरासत को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए जिसमें भिखारी ठाकुर दलित-बहुजन क्रांतिकारी कलाकारों की आकाशगंगा के बड़े सितारों में से एक हैं।

उनकी प्रमुख प्रस्तुतियों में शामिल हैं: – बिदेसिया, भाई-बिरोध, बेटी-वियोग या बेटी बेचबा (बेटी बेचने वाली), कलयुग प्रेमा (कलयुग में प्रेम), राधेश्याम बिहार (कृष्ण-राधा प्रेम पर आधारित), गंगा-अस्नान (औपचारिक स्नान) गंगा), बिधवा-विलाप, पुत्रबध (पुत्र की हत्या), गबर-बिचार (नाजायज संतान पर आधारित), और ननद भोजाई।

भिखारी ठाकुर का प्रारंभिक जीवन

प्रारंभ में उनका गाँव शाहाबाद जिले (वर्तमान भोजपुर ) का हिस्सा था , लेकिन 1926 में गंगा के मार्ग में परिवर्तन के कारण गाँव सारण जिले का हिस्सा बन गया। उनका ननिहाल आरा में रहा ।

वे दलसिंगार ठाकुर के पुत्र थे, जो पेशे से नाई थे। उनकी माता का नाम शिवकली देवी था। भिखारी ठाकुर दो बेटों में बड़े थे, छोटे का नाम बहोर ठाकुर था। पारिवारिक गरीबी के कारण ठाकुर अपनी प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर सके थे। उन्हें केवल कैथी वर्णमाला और रामचरितमानस का ज्ञान था ।

किशोरावस्था में उनका विवाह मटुना से हुआ, जिनसे 1911 में एक पुत्र शिलानाथ ठाकुर का जन्म हुआ। बचपन में वे मवेशी चराया करते थे। बड़े होने पर उन्हें नाई का अपना पारिवारिक पेशा अपनाना पड़ा।

हालाँकि, वह कुछ और करना चाहते थे, और इसलिए वे अपने गाँव से पड़ोसी फतनपुर गाँव में चले गए। 1914 में, जब ठाकुर 27 वर्ष के थे, उनके गाँव में अकाल पड़ा। उसके बाद, उन्होंने काम की तलाश में अपने परिवार को छोड़ दिया और खड़गपुर चले गए , जहाँ उनके चाचा भी पहले चले गए थे।

खड़गपुर से वे पुरी और फिर कलकत्ता गए और बाल काटने के अपने पारंपरिक पेशे को अपनाया। यह पहली बार था जब उन्हें एहसास हुआ कि जिस देश में वे रहते हैं वह हिंदुस्तान है और उस पर अंग्रेजों का शासन था ।

वे रामलीला देखते थे और वहीं से उन्हें नाटक लिखने और अभिनय करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने पहली बार “सिलेमा” (सिनेमा) भी देखा और बिहार के एक व्यक्ति बाबूलाल से मिले जो “नाच हॉल” चलाते थे। वे अपने गाँव लौट आए, एक नाटक कंपनी बनाई और रामलीला का प्रदर्शन करना शुरू किया

भोजपुरी के शेक्सपियरBiography of Bhikhari Thakur / भिखारी ठाकुर का जीवन परिचय
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पूरा नाम

भिखारी ठाकुर

जन्म

18 दिसम्बर 1887

जन्म भूमि

कुतुबपुर (दियारा) गाँव, सारन ज़िला बिहार

मृत्यु

10 जुलाई, 1971

जीवनसाथी

मटुना

बच्चे

1, शिलानाथ ठाकुर

अभिभावक

श्री दल सिंगार ठाकुर और श्रीमती शिवकली देवी

कर्म भूमि

बिहार

कर्म-क्षेत्र

कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता

मुख्य रचनाएँ

बिदेसिया, गबरधिचोर, बेटी-वियोग, भाई विरोध, गंगा स्नान आदि

नागरिकता

भारतीय

भाषा

भोजपुरी

अन्य जानकारी

राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें ‘अनगढ़ हीराकहा था तो जगदीशचंद्र माथुर ने भरत मुनि की परंपरा का कलाकार। इन्हें भोजपुरी का शेक्सपीयरभी कहा गया।

अद्यतन

17:30, 4 जुलाई 2014 (IST)

 

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सुनील कुमार सैन

आलेख लेखक

नमस्कार आदरणीय पाठको और सैन समाज के बंधुओ ! इस आलेख के लेखन में हमने विभिन्न अभिलेखों, स्थानीय इतिहासकारों व संदर्भो का सहयोग लिया हैं | इस आलेख को और उत्कृष्ट बनाने में आप भी अपना योगदान दे सकते हैं |

कब हुआ था जन्म

भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार के सारण (छपरा) जिले के कुतुबपुर (दियारा) में हुआ था. उनके पिता का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था. उनके पिता अपनी जातिगत व्यवस्था के आधार पर बंटे कार्य करते थे. लोगों की हजामत बनाना. पूजा-पाठ, शादी-ब्याह और जन्म-मृत्यु के अवसरों पर होने वाले कार्यक्रमों से भी उनकी गृहस्थी चलती थी

प्रारंभिक शिक्षा 
भिखारी ठाकुर 9 वर्ष की उम्र में पहली बार स्कूल गए. पर अगले 1 वर्ष तक वो वर्णमाला के एक अक्षर भी नहीं सीख पाए. पढ़ाई में मन नहीं लगा तो विधिवत शिक्षा को त्याग कर गाय चराने के कार्य में लग गए. उम्र बढ़ी तो खानदानी पेशा शुरू कर दिया, यानी कि लोगों के हजामत बनाने लगे. लेकिन उस व्यवस्था में उन्हें पैसे के बजाय साल में एक बार फसल मिलती थी और भिखारी ठाकुर को पैसे कमाने थे. चूंकि अब भिखारी ठाकुर हजामत बनाना सिख चुके थे, तो उन्होंने सोचा कि क्यों न किसी शहर में जाकर अच्छी कमाई की जाए. फिर वो पहले खड़गपुर और बाद में मेदिनीपुर गए. 

कैसे एक नाई बना भोजपुरी का शेक्सपियर
मेदिनीपुर आना भिखारी ठाकुर के जीवन की सबसे प्रमुख घटना रही. वहां उन्होंने रामलीला देखा और उनके भीतर का कलाकार धीरे-धीरे उन पर हावी होना शुरू हो गया. हाथ से उस्तरे छूटते गए और  मुंह से कविताओं का प्रवाह फूटना शुरू हो गया. वापस गांव आए और गांव में ही रामलीला का मंचन करना शुरू कर दिया. लोगों ने उनकी रामलीला की काफी सराहना भी की. अब भिखारी ठाकुर को ये समझ आ गया कि इसी क्षेत्र में उनका भविष्य है. इस बीच घरवालों के विरोध और अपनी उम्मीदों के बीच जूझते हुए सिंगार ठाकुर का बेटा धीरे-धीरे बिहारी ठाकुर के नाम से जाना जाने लगा.

भिखारी ठाकुर की प्रसिद्ध रचनाएं

उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में बिदेसिया, भाई-बिरोध, बेटी-बियोग या बेटि-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबरघिचोर, गंगा असनान, बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार आदि शामिल हैं. भिखारी ठाकुर का कथा संसार किसी किताबी विमर्श के आधार पर कल्पनालोक के चित्रण पर आधारित नहीं था.

किताबी ज्ञान के नाम पर भिखारी ठाकुर बिल्कुल भिखारी रह गए थे. उनकी लेखनी के पात्र और घटनाओं में उनका खुद का भोग और देखा समझ यथार्थ था. भिखारी ने शब्द ज्ञान से लेकर चिंतन के असीमित क्षेत्र का ज्ञान तक लोकजीवन से ग्रहण किया था और यही उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी उपलब्धि भी रही. 

क्यों आज भी प्रासंगिक हैं भिखारी ठाकुर के नाटक

खुद किताबों से अक्षर ज्ञान न प्राप्त कर पाने वाले भिखारी ठाकुर पर अब तक सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी हैं. उनकी रचनाएं इतनी विस्तृत हैं कि तत्कालीन बिहार का पूरा सामाजिक विवरण उनके कुछ नाटकों के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है. उनके नाटकों में जिन समस्याओं पर बात हुई है, वो सब आज भी समाज मे व्याप्त है. विस्थापन, स्त्री चेतना, वृद्धों, विधवाओं आदि पर लिखे गए बिहारी साहित्य की आवश्यकता आज के समाज को भी उतनी ही है.

तंग हालातों में परिवार 

भिखारी ठाकुर ने वर्षों पहले ही समाज को एक नयी चेतना प्रदान की थी, पर आज उनके गांव को उनके परिवार को और उनकी दुर्लभ रचनाओं को सहेजने वाला कोई नहीं है. उनके लोकसंगीत और रचनाओं को आगे बढ़ाने वाले परिवार के सदस्य और उनके शिष्य तंग हालातों में गुजर बसर करने को मजबूर हैं.

एक अनोखा कलाकार : भिखारी ठाकुर

भिखारी ठाकुर का पूरा रचनात्मक संसार लोकोन्मुख है। उनकी यह लोकोन्मुखता हमारी भाव-संपदा को और जीवन के संघर्ष और दु:ख से उपजी पीड़ा को एक संतुलन के साथ प्रस्तुत करती है। वे दु:ख का भी उत्सव मनाते हुए दिखते हैं। वे ट्रेजेडी को कॉमेडी बनाए बिना कॉमेडी के स्तर पर जाकर प्रस्तुत करते हैं। नाटक को दृश्य-काव्य कहा गया है। अपने नाटकों में कविताई करते हुए वे कविता में दृश्यों को भरते हैं।

उनके कथानक बहुत पेचदार हैं- वे साधारण और सामान्य हैं, पर अपने रचनात्मक स्पर्शों से वे साधारण और बहुत हद तक सरलीकृत कथानक में साधारण और विशिष्ट कथ्य भर देते हैं। वह यह सब जीवनानुभव के बल पर करते हैं। वे इतने सिद्धहस्त हैं कि अपने जीवनानुभवों के बल पर रची गई कविताओं से हमारे अंतरजगत में निरंतर संवाद की स्थिति बनाते हैं।

दर्शक या पाठक के अंतरजगत में चल रही ध्वनियां-प्रतिध्वनियां, एक गहन भावलोक की रचना करती हैं। यह सब करते हुए वे संगीत का उपयोग करते हैं। उनका संगीत भी जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों से उपजता है और यह संगीत अपने प्रवाह में श्रोता और दर्शक को बहाकर नहीं ले जाता, बल्कि उसे सजग बनाता है।

 बिदेसिया

अपने प्रसिद्ध नाटक ‘बिदेसियामें भिखारी ठाकुर ने स्त्री जीवन के ऐसे प्रसंगों को अभिव्यक्ति के लिए चुना, जिन प्रसंगों से उपजने वाली पीड़ा आज भी हमारे समाज में जीवित है। देश जिस समय स्वतंत्रता की एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई लड़ रहा था, उस समय वे इस राजनीतिक लड़ाई से अलग स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे।

स्वतंत्रता की लड़ाई समाप्त हो गई, देश राजनीतिक रूप से आजाद हो गया, पर स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई आज भी जारी है। अपने नाटक बिदेसिया में वे एक देसी स्त्री की अकथ पीड़ा का बयान करते हैं, जो पति के परदेस जाने के बाद गांव में अकेले छूट गई है। वे इस अकेले छूट गई स्त्री की पीड़ा को तमाम छूट गए लोगों की पीड़ा में बदल देते हैं।

देश ने 1947 में विभाजन और विस्थापन देखा, पर भिखारी ठाकुर ने 1940 के आसपास अपने नाटक बिदेसिया के माध्यम से बिहार से गांवों से रोजी-रोज़गार के लिए विस्थापित होने वाले लोगों की पीड़ा और संघर्षों को स्वर दिया। उनके नाटक का स्वर स्त्री जीवन के संघर्ष का स्वर है। बिदेसिया के अतिरिक्त उनके अन्य नाटकों के केंद्र में भी स्त्री ही है।

 

गबरघिचोर

गबरघिचोरनाटक लिखते हुए वह गर्भ पर स्त्री के मौलिक अधिकार का प्रश्न खड़ा करते हैं। बर्टोल्ट ब्रेख्त के नाटक काकेशियन चॉक सर्किल‘ (हिन्दी में खड़िया का घेरा‘) के कथ्य से मिलता-जुलता है गबरघिचोर का कथ्य, जिसको लिखकर ब्रेख्त अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाते हैं।

वही कथ्य बमुश्किल साक्षर भिखारी ठाकुर अपने समाज से चुनते हैं और असंख्य स्त्रियों की वाणी बन जाते हैं। भिखारी की रचनात्मक संवेदना चकित करती है कि जिस कथ्य को ब्रेख्त चुनते हैं ठीक उसी कथ्य को वे भी स्वीकार करते हैं।

भिखारी ठाकुर ने जिस काल में स्त्री गर्भ पर स्त्री के अधिकार के प्रश्न उठाए उस समय भारत के किसी ग्रामीण इलाके में सार्वजनिक प्रदर्शन तो दूर, यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी।

वह सोच के स्तर पर ग्रामीण समाज की स्त्रियों में एक व्यापक परिवर्तन के जीवंत अभियान पर निकलते हैं। यह एक ऐसा सांस्कृतिक अभियान था, जिसकी कल्पना आज की राजनीति की दुनिया में संभव नहीं है।

 

रंगमंच

उन्होंने दूसरा महत्त्वपूर्ण काम अपने रंगमंच की कलात्मकता के स्तर पर किया। उन्होंने जीवन से ही अपने लिए कला के रूप चुने। वहीं से नाटक की युक्तियों को उठाया। बिहार के तत्कालीन सामंती समाज ने जिस कला को अपनी विकृत रुचियों का शिकार बना लिया था और अश्लील कर दिया था, उसे उन्होंने नया और प्रभावशाली रूप दिया।

आज भिखारी ठाकुर हमारे लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि वे सिखाते हैं कि जीवन के अंतर्द्वंद्व ही रचनात्मकता को दीर्घजीवी बनाते हैं। उनका पूरा रचनात्मक संसार अंतर्द्वंद्वों से भरा हुआ है।

वे स्वयं गोस्वामी तुलसीदास की तरह भक्त कवि बनना चाहते थे और खड़गपुर (बंगाल) में रामलीला ने उनके भीतर कविताई का बीज डाला, पर उनके समय और समाज के दु:खों ने उन्हें मनुष्य की पीड़ा का रचनाकार बनाया।

आजीविका

बीसवीं सदी के आरंभ में भिखारी ठाकुर अपने गांव लौट आए और एक छोटी मंडली के साथ रामलीला प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। लेकिन उच्च जाति के हिंदुओं ने ठाकुर जैसे निम्न जाति के लोगों द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथों का प्रदर्शन करने का विरोध किया।
इसलिए ठाकुर ने एक नाट्य मंडली बनाई और खुद नाटक लिखना और निर्देशित करना शुरू कर दिया। उनके अधिकांश नाटक महिलाओं, गांव के लोगों की दुर्दशा और पुराने मूल्यों और आधुनिक मूल्यों के बीच टकराव के इर्द-गिर्द घूमते थे। ठाकुर द्वारा लिखा गया पहला नाटक बिरहा बहार था । उन्होंने अपना सबसे प्रसिद्ध नाटक बिदेसिया 1917 में लिखा था, जब उनकी उम्र 30 वर्ष थी। 1938 से 1962 के बीच भिखारी ठाकुर की तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। अधिकांश पुस्तकें दूधनाथ प्रेस ( हावड़ा ) और कचौड़ी गली ( वाराणसी ) द्वारा प्रकाशित की गई थीं।

उन्होंने अपने प्रदर्शन से पूरे बिहार , झारखंड , उत्तर प्रदेश और बंगाल में लोगों को प्रभावित किया। वह अपनी थिएटर कंपनी के कलाकारों के साथ शादी और अन्य समारोहों में प्रदर्शन करने के लिए जगह-जगह जाते थे और एकमुश्त रकम लेते थे। वह प्रदर्शन करने के लिए आरा , बलिया , मुजफ्फरपुर , गोरखपुर , जौनपुर, झरिया और असम के डिब्रूगढ़ तक गए । हालाँकि, अपनी लोकप्रियता के बावजूद, उन्हें अपनी निम्न जाति के लिए तिरस्कार का सामना भी करना पड़ा और महिलाओं के कपड़े पहनकर लौंडा नाच करने के लिए। उनके नाटकों को देखने के लिए भारी संख्या में लोग इकट्ठा होते थे, खासकर बिदेसिया के लिए, जब भी और जहाँ भी बिदेसिया का मंचन और खेला जाता था, वहां बेकाबू भीड़ हो जाती थी। ठाकुर के नाटक इतने प्रभावशाली होते थे कि,

उनकी लोकप्रियता के कारण, लोगों ने उनकी किताबों की पायरेटेड प्रतियाँ बेचना शुरू कर दिया और यहाँ तक कि ऐसी किताबें भी जो उनके द्वारा नहीं लिखी गई थीं, इसके लिए उन्हें “भिखारी पुस्तिका सूची” लिखनी पड़ी, जिसमें उनकी सभी प्रकाशित रचनाओं की सूची और विवरण था। उन्होंने अपने बारे में फैल रही झूठी खबरों को दूर करने के लिए “भिखारी शंका शमादान” भी लिखा।

शैली और योगदान

भिखारी ठाकुर के नाटक २०वीं सदी के ठेठ आधुनिक नाटकों से अलग थे, जिनमें केवल संवाद हुआ करते थे। ठाकुर के नाटक शास्त्रीय संस्कृत रंगमंच और शेक्सपियर की शैली में प्रयुक्त शैली के अधिक करीब थे, जिसमें गीत और संवाद दोनों होते थे। ठाकुर द्वारा लिखे गए नाटकों ने शास्त्रीय भारतीय रंगमंच के कई सिद्धांतों को आत्मसात किया।

उदाहरण के लिए, उनके नाटक मंगलाचरण से शुरू होते थे जो संस्कृत नाटकों का एक अनिवार्य हिस्सा है जिसमें गणपति और सरस्वती को समर्पित प्रार्थनाएं की जाती हैं , आशीर्वाद मांगते हैं। उनमें समाजी भी होती थी जो संस्कृत रंगमंच के शुत्रधारा और ग्रीक रंगमंच के कोरस के बराबर है । समाजी प्रस्तावना में नाटक के बारे में, उसके पात्रों के बारे में समझाते थे और हिंदू पौराणिक कथाओं के समानांतर उदाहरण देते थे ।

उनके नाटकों का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा लबार थे जिन्हें भारतीय शास्त्रीय रंगमंच में विदूषक के रूप में जाना जाता है भिखारी ठाकुर के नाटकों के पात्र विशेष के बजाय सामान्य का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रकार के होते हैं। उदाहरण के लिए, बिदेसिया नाटक में, बिदेसी का चरित्र उन सभी युवकों का प्रतिनिधित्व करता है जो कमाने के लिए असम और बंगाल जाते थे। इसी तरह बटोही का अर्थ यात्री है और यह एक ऐसे व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जो कोलकाता जा रहा है।

उन्होंने अपने नाटकों में अन्य लोकप्रिय रंगमंच से जो कुछ भी उपयुक्त और रोमांचक पाया, उसे शामिल किया। उनका बिदेसिया धार्मिक, धर्मनिरपेक्ष, त्रासदी , हास्य , पारंपरिक और आधुनिक रंगमंच शैली का मिश्रण है। उन्होंने तबला , हारमोनियम , ढोलक , सितार , झाल और बंसी जैसे वाद्ययंत्रों को भी शामिल किया।

उन्होंने अपने नाटकों में बिरहा , पूरबी, कजरी , आल्हा, फगुआ, चैता, सोरठी, चौबोला आदि सभी लोकप्रिय भोजपुरी लोकगीत शैली को भी अपनाया। उन्होंने छंद का एक नया रूप भी बनाया जिसे बिदेसिया छंद कहा जाता है , स्थानीय भाषाओं के छंदों के विपरीत, जो कि मातृक होते हैं , बिदेसिया छंद शास्त्रीय संस्कृत काव्य की तरह वर्णिक या शब्दांश होता है , जिसमें संस्कृत के घनकाशरी छंद की तरह प्रत्येक पंक्ति में 32 अक्षर होते हैं ।

संदेश और प्रभाव

भिखारी ठाकुर के नाटक और गीत समाज में व्याप्त बुराइयों को दर्शाते हैं। बिदेसिया में उस स्त्री का दर्द दिखाया गया है जिसका पति उसे छोड़कर दूसरी स्त्री से विवाह कर लेता है, बेटी बेचवा में असमान विवाह की प्रथा को दर्शाया गया है, बिधवा बिलाप में दर्शाया गया है कि विधवा के साथ समाज और उसके परिवार द्वारा कैसा व्यवहार किया जाता है और उसे धोखा दिया जाता है।
सामाजिक समस्याओं के अलावा, ठाकुर ने भाई बिरोध और ननद-भौजाई में संयुक्त परिवारों के अलगाव की भी बात की है। कलजुग प्रेम या पियावा नसाईल में उन्होंने शराब पीने के दुष्परिणाम और परिवार पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाया है। पुत्रबाध में एक सौतेली माँ अपने सौतेले बेटे को मारने की योजना बनाती है । गंगा असनान ढोंगी ब्राह्मणों की धोखाधड़ी को उजागर करता है। उनके नाटकों और गीतों ने जाति व्यवस्था पर सबसे अधिक प्रभाव डाला।

उन्होंने अपने नाटकों के ज़रिए एक सामाजिक आंदोलन की शुरुआत की। ऐसी कहानियाँ हैं कि युवा लड़कियाँ अपने माता-पिता द्वारा पैसे लिए गए बूढ़े लोगों से चुपचाप शादी करने के बजाय मंडप छोड़कर भाग जाती हैं।
उत्तर प्रदेश के नौतनवा गाँव में, नाटक के मंचन के बाद, गाँव वालों ने एक बूढ़े दूल्हे की बारात को वापस भेज दिया । झारखंड के धनबाद में एक प्रदर्शन के बाद, दर्शकों में से कुछ लोग पास के एक मंदिर में गए और शपथ ली कि वे इस प्रथा को बंद कर देंगे।

आलोचनात्मक प्रतिष्ठा

भिखारी ठाकुर का जीवन परिचय 220px Statue of Bhikhari Thakur in Chhapra
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छपरा में भिखारी ठाकुर की मूर्ति

भिखारी ठाकुर को उनके नाटक के लिए काफी सराहना मिली जो समाज की वास्तविकता को उजागर करते थे। लोग उन्हें रायबहादुर और भोजपुरी के शेक्सपियर जैसी उपाधियों से पुकारते थे । राहुल सांकृत्यायन जिन्होंने उन्हें शेक्सपियर की उपाधि दी थी , ने उनके बारे में टिप्पणी की है|

१९४४ में, बिहार सरकार ने उन्हें राय बहादुर या राय साहब की उपाधि दी और उन्हें ताम्र शील्ड से सम्मानित किया गया।  असम की प्रसिद्ध भोजपुरी लोक गायिका कल्पना पटवारी , जिन्होंने द लिगेसी ऑफ़ भिखारी ठाकुर नामक एल्बम में ठाकुर के गीतों को संकलित किया है , ने ठाकुर के बारे में टिप्पणी की है

“हंसि हंसि पनवा खीऔले बेईमनवा कि अपना बसे रे परदेश

कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गइले, मारी रे करेजवा में ठेस!

भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व में कई आश्चर्यजनक विशेषताएं थी. मात्र अक्षर ज्ञान के बावजूद पूरा रामचरित मानस उन्हें कंठस्थ था. शुरुआती जीवन में वह रोजी-रोटी के लिए अपना घर-गांव छोडकर खड़गपुर चले गए थे. कुछ वक्त तक वहां नौकरी की. तीस वर्षों तक पारंपरिक पेशे से जुड़े रहे.

अपने गांव लौटे तो लोक कलाकारों की एक नृत्य मंडली बनाई. जिसके बाद वह रामलीला करने लगे. उनकी संगीत में भी गहरी अभिरुचि थी. वह कई स्तरों पर कला-साधना करने के साथ साथ भोजपुरी साहित्य की रचना में भी लगे रहे.

ठाकुर प्रो. रामसुहाग सिंह द्वारा लिया गया भिखारी ठाकुर के साक्षात्कार के अंश

 मैं इस काम से अलग रहकर जीवित नहीं रह सकता – भिखारी 

एक जनवरी 1965 के दिन के एक बजे लोक कलाकार भिखारी ठाकुर की 77वीं वर्षगांठ के शुभ अवसर पर धापा (कोलकाता के पूर्वी सीमांत) स्थित श्री सत्यनारायण भवन परिसर में भव्य अभिनंदन समारोह का आयोजन हुआ था। अभिनंदन के समापन समारोह के उपरांत संत जेवियर कालेज, रांची के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रामसुहाग सिंह ने भिखारी ठाकुर का साक्षात्कार किया। प्रो. सिंह द्वारा किये गये इस साक्षात्कार को काफी वर्षों बाद रांची से प्रकाशित होने वाली अश्विनी कुमार पंकज की पत्रिका विदेशिया में 1987 में प्रकाशित किया गया था.

लोकरंग की दुनिया में इसे एक दुर्लभ साक्षात्कार भी कह सकते हैं। इस साक्षात्कार को पढ़ने के बाद भिखारी ठाकुर के व्‍यक्तित्‍व के बारे में कई बातें स्वत: ही सामने आ जायेंगी। कैसे बुलंदियों के दिन में भी भिखारी अपने बारे में कुछ बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताना चाहते थे. भिखारी को शायद तब ही इस बात का अहसास था कि आनेवाले दिनों में तमाशाई संस्कृति लोकरंग को निगल लेगी, तभी तो एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि अगले जनम में वे यही करना चाहेंगे, अभी से नहीं कह सकते। भिखारी अपने निजी व सार्वजनिक जीवन में कोई रहस्य का पर्दा नहीं डालना चाहते थे, इसीलिये जब उनसे नाच का उद्देश्य पूछा गया तो उन्होंने धनार्जन को भी स्वीकारा।

यहां हम बिदेसिया से साभार उसी साक्षात्कार को प्रस्तुत कर रहे हैं-

प्रो.सिंह:- भिखारी ठाकुर जी आपकी जन्म तिथि क्‍या है?
भिखारी ठाकुर- सिंह साहब, 1295 सा ल पौष मास शुक्‍ल पक्ष, पंचमी, सोमवार, 12 बजे दिन।
प्रो.सिंह:- आपका जन्म स्थान कहां है?
भिखारी ठाकुर-कुतुबपुर दियर, कोढ़वापटी, रामपुर,सारण
प्रो.सिंह:- आपके पिताजी का क्‍या नाम है?
भिखारी ठाकुर-दलसिंगार ठाकुर।
प्रो.सिंह:- आपके दादाजी का नाम क्‍या है?
भिखारी ठाकुर- गुमान ठाकुर।
प्रो.सिंह:-क्‍या आपके पिताजी पढ़े-लिखे थे?
भिखारी ठाकुर- वे अशिक्षित थे.
प्रो.सिंह:- आपकी शिक्षा किस श्रेणी तक हुई?
भिखारी ठाकुर- स्कूल में केवल ककहरा तक, मैंने एक वर्ष तक पढ़ा, लेकिन कुछ नहीं आया। भगवान नामक लड़के ने मुझे पढ़ाया।
प्रो.सिंह:-आपके पिताजी की आर्थिक स्थिति कैसी थी?
भिखारी ठाकुर-जमीन तथा अन्य संपत्ति बहुत ही कम थी, गरीब थे।
प्रो.सिंह:-आपके जमींदार कौन थे?
भिखारी ठाकुर-मेरे जमींदार आरा के शिवसाह कलवार थे।
प्रो.सिंह:-आपके साथ उनका व्यवहार कैसा था?
भिखारी ठाकुर-उनका व्यवहार अच्छा था।
प्रो.सिंह:-क्‍या लड़कपन से ही नाच-गान में आपकी अभिरुचि है?
भिखारी ठाकुर-मैं तीस वर्षों तक हजामत करता रहा।
प्रो.सिंह:-कैसे नाच-गान और कविता की ओर आपकी अभिरुचि हुई?
भिखारी ठाकुर-मैं कुछ गाना जानता था। नेक नाम टोला के एक हजाम रामसेवक ठाकुर ने मेरा गाना सुनकर कहा कि ठीक है। उन्होंने यह बताया कि मात्रा की गणना इस प्रकार होती है। बाबू हरिनंदन सिंह ने मुझे सर्वप्रथम रामगीत का पाठ पढ़ाया। वे अपने गांव के थे।
प्रो.सिंह:-आपके गुरुजी का नाम क्‍या था?
भिखारी ठाकुर- स्कूल के गुरुजी का नाम याद नहीं है।
प्रो.सिंह:-आपने अपना पेशा कब तक किया?
भिखारी ठाकुर-तीस वर्ष की उम्र तक।
प्रो.सिंह:-क्‍या अपने पेशे के समय भी आप नाच-गान का काम करते थे?
भिखारी ठाकुर-तीस वर्ष के बाद से नाच-गान का काम कभी नहीं रुका।
प्रो.सिंह:-सबसे पहले आपने कौन कविता बनायी?
भिखारी ठाकुर- बिरहा-बहार पुस्तक।
प्रो.सिंह:-सबसे पहले आपने कौन नाटक बनाया?
भिखारी ठाकुर-बिरहा-बहार ही नाटक के रूप में खेला गया।
प्रो.सिंह:-सबसे पहले बिरहा-बहार नाटक कहां खेला गया?
भिखारी ठाकुर- सबसे पहले बिरहा-बहार नाटक सर्वसमस्तपुर ग्राम में लगन के समय खेला गया।
प्रो.सिंह:-क्‍या आपके पहले भी इस तरह का नाटक होता था?
भिखारी ठाकुर-मैंने बिदेसिया नाम सुना था, परदेशी की बात आदि के आधार पर मैंने बिरहा-बहार बनाया।
प्रो.सिंह:-इस तरह के नाम की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
भिखारी ठाकुर- कोई पुस्तक मिली थी, नाम याद नहीं है।
प्रो.सिंह:- क्‍या आप छंद-शास्‍त्र के नियमों के अनुसार कविता बनाते हैं?
भिखारी ठाकुर-मैं मात्रा आदि जानता हूं, रामायण के ढंग पर कविता बनाता हूं।
प्रो.सिंह:- आपकी लिखी हुई कौन-कौन पुस्तकें हैं?
भिखारी ठाकुर-बिरहा-बहार, विदेशिया, कलियुग बहार, हरिकीर्तन, बहरा-बहार, गंगा-स्नान, भाई-विरोधी, बेटी-वियोग, नाई बहार, श्रीनाम रत्न, रामनाम माला आदि।
प्रो.सिंह:- सबसे हाल की रचना कौन है?
भिखारी ठाकुर-नर नव अवतार।
प्रो.सिंह:- आपकी अधिकांश पुस्तकें कहां-कहां से प्रकाशित हैं?
भिखारी ठाकुर- पुस्तकों से मालूम होगा.
प्रो.सिंह:- आपके विचार में सबसे अच्छी रचना कौन है?
भिखारी ठाकुर- भिखारी हरिकीर्तन और भिखारी शंका समाधान.
प्रो.सिंह:- आप जब कोई पुस्तक लिखते हैं तो क्‍या दूसरों से भी दिखाते हैं?
भिखारी ठाकुर- मानकी साहक्‍गांव के ही हैं। वे अभी जीवित हैं। वे सिर्फ साफ-साफ लिख देते हैं। उन्हें शुद्ध-अशुद्ध का ज्ञान नहीं है। रामायण का सत्संग बाबू रामानंद सिंह के द्वारा हुआ। श्लोक का ज्ञान दयालचक के साधु गोसाईं बाबा से हुआ।
प्रो.सिंह:- रायबहादुर की उपाधि आपको कब मिली?
भिखारी ठाकुर-रायबहादुर आदि की जो मुझे उपाधियां मिलीं उन्हें मैं नहीं जानता हूं। कब क्‍या उपाधियां मिलीं मुझे कुछ मालूम नहीं है।
प्रो.सिंह:- क्‍या आपको आशा है कि आपका कोई उत्तराधिकारी होगा?
भिखारी ठाकुर- मेरे भतीजा गौरीशंकर ठाकुर मेरी रचनाओं के आधार पर काम कर रहे हैं।
प्रो.सिंह:- आपकी संतानें कितनी हैं? आपके लड़के क्‍या करते हैं?
भिखारी ठाकुर- एक लड़का है शिलानाथ ठाकुर। वह घर-गृहस्थी का काम करता है। उसे नाच आदि से कोई संबंध नहीं है।
प्रो.सिंह:- क्‍या आप विश्रामपूर्ण जीवन बिताना चाहते हैं?
भिखारी ठाकुर- मैं इस काम से अलग रहकर जीवित नहीं रह सकता।
प्रो.सिंह:- आप तो जनता के कवि हैं, इस लिये स्वतंत्रता के पहले और बाद में क्‍या अंतर पाते हैं?
भिखारी ठाकुर- मैं कुछ कहना नहीं चाहता।
प्रो.सिंह:- वर्तमान शासन से क्‍या आप खुश हैं?
भिखारी ठाकुर- उत्तर देना संभव नहीं।
प्रो.सिंह:- अभी तक कितने पुरस्कार-पदक मिले हैं?
भिखारी ठाकुर- याद नहीं है।
प्रो.सिंह:- हाल में आपको क्‍या कोई उपाधि मिली है?
भिखारी ठाकुर-हां, बिहार रत्न की।
प्रो.सिंह:- बिहार के बाहर आप अपना नाच दिखाने कहां-कहां गये हैं?
भिखारी ठाकुर- आसाम, बनारस, कलकत्ता और बम्बई सिनेमा में एक गीत देने के लिये।
प्रो.सिंह:- कैसे आप समझते हैं कि आपके नाच से लोग प्रसन्न हो रहे हैं?
भिखारी ठाकुर- कोई उत्तर नहीं।
प्रो.सिंह:- क्या आप पूजा-पाठ, संध्या वंदना भी करते हैं? किन देवताओं की पूजा करते हैं?
भिखारी ठाकुर-सिर्फ राम-नाम जपता हूं।
प्रो.सिंह:- जिंदगी को आप सुखमय या दुखमय समझते हैं. हिंदी छोड़कर और कोई भाषा जानते हैं?
भिखारी ठाकुर- मौन।
प्रो.सिंह:- आपके आधार पर अभी कौन-कौन नाच हैं?
भिखारी ठाकुर- अनेक नाच इसी आधार पर हो गये हैं।
प्रो.सिंह:- क्या कुछ दिनों तक सिनेमा में भी आप थे? सिनेमा का जीवन आपको कैसा मालूम हुआ था?
भिखारी ठाकुर-नहीं।
प्रो.सिंह:- आप अपने दल के लोगों का क्या खुद अभ्यास करवाते हैं?
भिखारी ठाकुर-उस्ताद से सिखवाते हैं।
प्रो.सिंह:- आप जो नाटक दिखाते हैं उसका लक्ष्य धनोपार्जन के अतिरिक्त और क्या समझते हैं?
भिखारी ठाकुर-उपदेश और धनोपार्जन।
प्रो.सिंह:- स्वास्थ्य कैसा रहता है?
भिखारी ठाकुर- अब तक सिर्फ तीन दांत टूटे हैं।
प्रो.सिंह:- नाटक के बाद की थकावट कैसे दूर होती है?
भिखारी ठाकुर- मौन।
प्रो.सिंह:- आप क्या राजनीति में भाग लेना चाहते हैं?
भिखारी ठाकुर- मौन।
प्रो.सिंह:- पुन: आपका जन्म इसी देश में हुआ तो क्यया आप यही कार्य करना चाहते हैं?
भिखारी ठाकुर- कोई निश्चित नहीं।
प्रो.सिंह:- कविता लिखने या नाटक करने के लिये क्या आपको तैयारी करनी पड़ती है?
भिखारी ठाकुर- पहले तैयारी करनी पड़ती थी पर अब नहीं।
प्रो.सिंह:- अपने नाटकों के कथानक आप कहां से लेते हैं?
भिखारी ठाकुर- समाज से।
प्रो.सिंह:- इस समय आपके अनन्य मित्र कौन-कौन हैं?
भिखारी ठाकुर- अब कोई नहीं है। पहले बाबू रामानंद सिंह थे।
प्रो.सिंह:- क्या आपकी कोई स्थायी नाट्यशाला है?
भिखारी ठाकुर- कोई स्थायी जगह नहीं है।
प्रो.सिंह:- अच्छे नाटक या कविता के आप क्या लक्षण समझते हैं?
भिखारी ठाकुर- जनता की भीड़ से।
प्रो.सिंह:- क्या आपको मालूम है कि इस समय आपका उच्च कोटी के कलाकारों में स्थान है?
भिखारी ठाकुर-जो प्राप्त हुआ है वही मेरे लिये पर्याप्त है।
प्रो.सिंह:- भूतपूर्व राष्ट्रपति देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से सबसे पहले और अंत में भेंट कब हुई?
भिखारी ठाकुर- मुझे याद नहीं।
प्रो.सिंह:- क्या आप वर्तमान राष्ट्रपति डॉ॰ राधाकृष्ण्न और वर्तमान प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से मिले हैं?
भिखारी ठाकुर- कभी नहीं।
प्रो.सिंह:- पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने कभी आपका नाटक देखा?
भिखारी ठाकुर-कभी नहीं।
प्रो.सिंह:- गांधीजी ने आपका नाटक देखा या कभी भेंट हुई थी?
भिखारी ठाकुर- निकट से साक्षात्कार नहीं हुआ।
प्रो.सिंह:- आपकी ससुराल कहां है?
भिखारी ठाकुर- मेरा प्रथम विवाह मानपुरा, आरा के स्वर्गीय देवशरण ठाकुर की लड़की से हुआ। उसके निधन के बाद दूसरा विवाह आमडाढ़ी, छपरा में हुआ. उसका गंगालाभ होने के बाद तीसरा विवाह हुआ, उसकी भी मृत्यु…

निधन

1946 में, उनके गांव में हैजा फैल गया, जिसमें उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई, जब वे अपने एक शो के लिए दौरे पर थे। जब वे दौरे पर थे, तब उनकी माँ की भी मृत्यु हो गई। 1963 में, भोजपुरी फिल्म बिदेसिया रिलीज़ हुई जो उनके नाटक पर आधारित थी। फिल्म में, भिखारी ठाकुर ने एक विशेष भूमिका निभाई, जहाँ उन्होंने अपनी खुद की कविता “डगरिया जोहत ना” सुनाई।

भिखारी ठाकुर का निधन 10 जुलाई, सन 1971 को 84 वर्ष की आयु में हो गया। भिखारी ठाकुर को साहित्य और संस्कृति की दुनिया के पहलुओं ने प्रसिद्ध नहीं किया और न ही जीवित रखा। उनकी प्रसिद्ध और व्यापक स्वीकार्यता के कारण उनकी रचनाओं के गर्भ में छिपे हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि नाटक कभी पुराना नहीं होता। उसे हर क्षण नया रहना पड़ता है और यह तभी संभव है, जब उसके भीतर मनुष्य समग्रता के साथ जीवित हो। उन्होंने जीवन से जो अर्जित किया उसी की पुनर्रचना की। आज भारतीय ग्रामीण समाज उन तमाम दु:खों से जूझ रहा है, जिनकी ओर वे अपनी रचनाओं से संकेत करते हैं। ‘भाई-विरोध’, ‘बेटी-वियोग’, या ‘पुत्रवध’ – उनके इन तमाम नाटकों में मनुष्य के आपसी संबंधों के छीजते जाने की पीड़ा है।

बाहरी कड़ियाँ

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