भारत के स्वर्णिम जननायक

भारत रत्न जननायक कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर, जिन्हें अक्सर जननायक कहा जाता है, बिहार के एक दिग्गज नेता थे, जिनका भारत की राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव था। 2024 की शुरुआत में, समाज में उनके असाधारण योगदान के सम्मान में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। उनकी जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में, यह मनोरंजक जीवनी ठाकुर के जीवन, विरासत और स्थायी प्रासंगिकता को प्रकाश में लाती है। यह कर्पूरी ठाकुर की राजनीति पर केंद्रित है, जिसने ‘कोटा के भीतर कोटा’ की शुरुआत की और 1978 में पिछड़े वर्गों और महिलाओं के बीच आरक्षण को विभाजित करने में उनकी भूमिका की झलक दिखाई।

गहन शोध, उपाख्यान और अविश्वसनीय, जननायक भारतीय राजनीति और समाज के जटिल परिदृश्य को समझने के इच्छुक पाठकों के लिए एक प्रकाश स्तंभ बनने का वादा करता है।

आइये जानते भारत के स्वर्णिम जननायक कर्पूरी ठाकुर का जीवन परिचय

कर्पूरी ठाकुर (अंग्रेज़ी: Karpoori Thakur, जन्म- 24 जनवरी, 1924; मृत्यु- 17 फरवरी, 1988) भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री थे। कर्पूरी ठाकुर इतने सरल थे कि आम लोगों की फरियाद भी बड़ी तल्लीनता से सुनते थे। बहुत तल्लीन होकर प्रदेश का कोई भी अहम काम निपटाते थे। इसीलिए उनको जननायक भी कहा जाता है। भारत सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को वर्ष 2024 में उनकी मृत्यु के 35 साल बाद भारत रत्न से सम्मानित किया है।

24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्मे कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।

भारत रत्न जननायक कर्पूरी ठाकुर एक ईमानदार नेता

  • कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।
  • जब करोड़ो रुपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं। उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए। उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि ख़रीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।”
  • कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को पत्र लिखना नहीं भूले। इस पत्र में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, “पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना। मेरी बदनामी होगी।” रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का लाभ भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया।
  • उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा, “कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा। हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं।
  • कर्पूरी जी के मुख्यमंत्री रहते हुये ही उनके क्षेत्र के कुछ सामंती जमींदारों ने उनके पिता को सेवा के लिये बुलाया। जब वे बीमार होने के नाते नहीं पहुंच सके तो जमींदार ने अपने लठैतों से मारपीट कर लाने का आदेश दिया। जिसकी सूचना किसी प्रकार जिला प्रशाशन को हो गयी तो तुरन्त जिला प्रशाशन कर्पूरी जी के घर पहुंच गया और उधर लठैत पहुंचे ही थे। लठैतो को बंदी बना लिया गया किन्तु कर्पूरी ठाकुर जी ने सभी लठैतों को जिला प्रशाशन से बिना शर्त छोडने का आग्रह किया तो अधिकारीगणो ने कहा कि इन लोगों ने मुख्यमंत्री के पिता को प्रताडित करने का कार्य किया इन्हे हम किसी शर्त पर नही छोड सकते थे। कर्पूरी ठाकुर जी ने कहा ” इस प्रकार के पता नही कितने असहाय लाचार एवं शोषित लोग प्रतिदिन लाठियां खाकर दम तोडते है काम करते है कहां तक, किस किस को बचाओगे। क्या सभी मुख्यमंत्री के मां बाप है। इनको इसलिये दंडित किया जा रहा है कि इन्होने मुख्यमंत्री के पिता को उत्पीड़ित किया है, सामान्य जनता को कौन बचायेगा। जाऔ प्रदेश के कोने कोने मे शोषण उत्पीड़न के खिलाफ अभियान चलाओ और एक भी परिवार सामंतों के जुल्मो सितम का शिकार न होने पाये” लठैतो को कर्पूरी जी ने छुडवा दिया। इस प्रकार वे पक्षपात एवं मानवता का मसीहा कहा जाना अतिश्योक्ति नहीं है।
  • अस्सी के दशक की बात है. बिहार विधान सभा की बैठक चल रही थी. कर्पूरी ठाकुर विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे. उन्होंने एक नोट भिजवा कर अपने ही दल के एक विधायक से थोड़ी देर के लिए उनकी जीप मांगी. उन्हें लंच के लिए आवास जाना था.
    उस विधायक ने उसी नोट पर लिख दिया, ‘मेरी जीप में तेल नहीं है. कर्पूरी जी दो बार मुख्यमंत्री रहे. कार क्यों नहीं खरीदते?’ यह संयोग नहीं था कि संपत्ति के प्रति अगाध प्रेम के चलते वह विधायक बाद के वर्षों में अनेक कानूनी परेशानियों में पड़े, पर कर्पूरी ठाकुर का जीवन बेदाग रहा.
  • एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर रिक्शे से ही चलते थे. क्योंकि उनकी जायज आय कार खरीदने और उसका खर्च वहन करने की अनुमति नहीं देती
  • कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे. बहुगुणा जी कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे.
    स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर 1952 से लगातार विधायक रहे, पर अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया.
  • सत्तर के दशक में पटना में विधायकों और पूर्व विधायकों के निजी आवास के लिए सरकार सस्ती दर पर जमीन दे रही थी. खुद कर्पूरी ठाकुर के दल के कुछ विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि आप भी अपने आवास के लिए जमीन ले लीजिए.
    कर्पूरी ठाकुर ने साफ मना कर दिया. तब के एक विधायक ने उनसे यह भी कहा था कि जमीन ले लीजिए.अन्यथा आप नहीं रहिएगा तो आपका बाल-बच्चा कहां रहेगा? कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि अपने गांव में रहेगा.
  • कर्पूरी ठाकुर के दल के कुछ नेता अपने यहां की शादियों में करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं.पर जब कर्पूरी ठाकुर को अपनी बेटी की शादी करनी हुई तो उन्होंने क्या किया था? उन्होंने इस मामले में भी आदर्श उपस्थित किया.
    1970-71 में कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री थे. रांची के एक गांव में उन्हें वर देखने जाना था. तब तक बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. कर्पूरी ठाकुर सरकारी गाड़ी से नहीं जाकर वहां टैक्सी से गये थे. शादी समस्तीपुर जिला स्थित उनके पुश्तैनी गांव पितौंजिया में हुई. कर्पूरी ठाकुर चाहते थे कि शादी देवघर मंदिर में हो, पर उनकी पत्नी की जिद पर गांव में शादी हुई. कर्पूरी ठाकुर ने अपने मंत्रिमंडल के किसी सदस्य को भी उस शादी में आमंत्रित नहीं किया था. यहां तक कि उन्होंने संबंधित अफसर को यह निर्देश दे दिया था कि बिहार सरकार का कोई भी विमान मेरी यानी मुख्य मंत्री की अनुमति के बिना उस दिन दरभंगा या सहरसा हवाई अड्डे पर नहीं उतरेगा. पितौंजिया के पास के हवाई अड्डे वहीं थे.आज के कुछ तथाकथित समाजवादी नेता तो शादी को भी ‘सम्मेलन’ बना देते हैं. भ्रष्ट अफसर और व्यापारीगण सत्ताधारी नेताओं के यहां की शादियों के अवसरों पर करोड़ों का खर्च जुटाते हैं. कर्पूरी ठाकुर के जमाने में भी थोड़ा बहुत यह सब होता था, पर कर्पूरी ठाकुर तो अपवाद थे.
  • हालांकि उनकी साधनहीनता भी उन्हें दो बार मुख्यमंत्री बनने से रोक भी नहीं सकी. 1977 में जेपी आवास पर जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन मनाया जा रहा था.
    पटना के कदम कुआं स्थित चरखा समिति भवन में, जहां जेपी रहते थे,देश भर से जनता पार्टी के बड़े नेता जुटे हुए थे. उन नेताओं में चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख शामिल थे. मुख्यमंत्री पद पर रहने बावजूद फटा कुर्ता, टूटी चप्पल और बिखरे बाल कर्पूरी ठाकुर की पहचान थे. उनकी दशा देखकर एक नेता ने टिप्पणी की, ‘किसी मुख्यमंत्री के ठीक ढंग से गुजारे के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए?’ सब निहितार्थ समझ गए. हंसे. फिर चंद्रशेखर अपनी सीट से उठे. उन्होंने अपने लंबे कुर्ते को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर सामने की ओर फैलाया. वह बारी-बारी से वहां बैठे नेताओं के पास जाकर कहने लगे कि आप कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में दान कीजिए. तुरंत कुछ सौ रुपए एकत्र हो गए. उसे समेट कर चंद्रशेखर जी ने कर्पूरी जी को थमाया और कहा कि इससे अपना कुर्ता-धोती ही खरीदिए. कोई दूसरा काम मत कीजिएगा. चेहरे पर बिना कोई भाव लाए कर्पूरी ठाकुर ने कहा, ‘इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा.’
  • यानी तब समाजवादी आंदोलन के कर्पूरी ठाकुर को उनकी सादगी और ईमानदारी के लिए जाना जाता था, पर आज के कुछ समाजवादी नेताओं को? कम कहना और अधिक समझना !
भारत के स्वर्णिम जननायक जननायक कर्पूरी ठाकुर
  • Facebook
  • Twitter
  • Google+
‌ग्यारहवें मुख्यमंत्री, बिहार
पूर्वाधिकारी  दरोगा प्रसाद राय
उत्तराधिकारी भोला पासवान शास्त्री
पद बहाल 24 जुन 1977 – 21 अप्रैल 1979
पूर्वाधिकारी जगन्नाथ मिश्र
उत्तराधिकारी राम सुंदर दास
‌दुसरे उप मुख्यमंत्री, बिहार
पद बहाल 5 मार्च 1967 – 31 जनवरी 1968
मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा
पूर्वाधिकारी अनुग्रह नारायण सिन्हा
उत्तराधिकारी  सुशील कुमार मोदी
शिक्षा मंत्री बिहार
पद बहाल 5 मार्च 1967 – 31 जनवरी 1968
उत्तराधिकारी सतीश प्रसाद सिंह
जन्म 24 जनवरी 1924
‌पितौंझिया, बिहार और उड़ीसा प्रांत, ब्रिटिश इंडिया
मृत्यु 17 फ़रवरी 1988 (उम्र 64)
पटना, बिहार, India
राजनीतिक दल सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय क्रांति दल, जनता पार्टी, लोकदल
व्यवसाय स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ
पुरस्कार/सम्मान भारत रत्न (2024)
अन्य जानकारी बेदाग छवि के कर्पूरी ठाकुर आजादी से पहले 2 बार और आजादी मिलने के बाद 18 बार जेल गए।
Testimonial Image
  • Facebook
  • Twitter
  • Google+

के एल सेन मेड़ता

आलेख लेखक

नमस्कार आदरणीय पाठको और सैन समाज के बंधुओ ! इस आलेख के लेखन में हमने विभिन्न सरकारी अभिलेखों, स्थानीय इतिहासकारों का सहयोग लिया हैं | इस आलेख में आप भी अपना योगदान दे सकते हैं |

‘पिता के अपमान पर क्या बोले थे कर्पूरी?’

उनकी सियासी सुचिता से जुड़ा एक और किस्सा उसी दौर का है कि उनके मुख्यमंत्री रहते ही उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित करने का काम किया. खबर फैली तो डीएम गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने कार्रवाई करने से रोक दिया. उनका कहना था कि दबे पिछड़ों का अपमान तो गांव-गांव में हो रहा है, सबको बचाए पुलिस तब कोई बात हो.

‘कांग्रेस से अलग लकीर खींची और सीएम बने’

1960 के दशक में कांग्रेस के खिलाफ देश में समाजवादी आंदोलन तेज हो रहा था. 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया. कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी. कर्पूरी ठाकुर उस सरकार में उप मुख्यमंत्री बने. 1977 में जनता पार्टी की विजय के बाद वे बिहार के मुख्यमंत्री बने. 

‘पिछड़ों को दिया था 27 प्रतिशत आरक्षण’

उस दरम्यान सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से उठ रही थी. मंडल आंदोलन से भी पहले मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया था|

भारत रत्न जननायक कर्पूरी ठाकुर सहज जीवनशैली के धनी

कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंत्रण था। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। उनका भाषण आडंबर-रहित, ओजस्वी, उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था। कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे, जिसे सुनकर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था, लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है। उनकी आवाज बहुत ही खनकदार और चुनौतीपूर्ण होती थी, लेकिन यह उसी हद तक सत्य, संयम और संवेदना से भी भरपूर होती थी। कर्पूरी जी को जब कोई गुमराह करने की कोशिश करता था तो वे जोर से झल्ला उठते थे तथा क्रोध से उनका चेहरा लाल हो उठता था। ऐसे अवसरों पर वे कम ही बोल पाते थे, लेकिन जो नहीं बोल पाते थे, वह सब उनकी आंखों में साफ-साफ झलकने लगता था। फिर भी विषम से विषम परिस्थितियों में भी शिष्टाचार और मर्यादा की लक्ष्मण रेखाओं का उन्होंने कभी भी उल्लंघन नहीं किया।

सामान्य, सरल और सहज जीवनशैली के हिमायती कर्पूरी ठाकुर जी को प्रारंभ से ही सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों से जूझना पड़ा। ये अंतर्विरोध अनोखे थे और विघटनकारी भी। हुआ यह कि आजादी मिलने के साथ ही सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई। बिहार में कांग्रेस पर ऊंची जातियों का क़ब्ज़ा था। ये ऊंची जातियां सत्ता का अधिक से अधिक स्वाद चखने के लिए आपस में लड़ने लगीं। पार्टी के बजाय इन जातियों के नाम पर वोट बैंक बनने लगे। सन 1952 के प्रथम आम चुनाव के बाद कांग्रेस के भीतर की कुछ संख्या बहुल पिछड़ी जातियों ने भी अलग से एक गुट बना डाला, जिसका नाम रखा गया ‘त्रिवेणी संघ’। अब यह संघ भी उस महानाटक में सम्मिलित हो गया।

शीघ्र ही इसके बुरे नतीजे सामने आने लगे। संख्याबल, बाहुबल और धनबल की काली ताकतें राजनीति और समाज को नियंत्रित करने लगीं। राजनीतिक दलों का स्वरूप बदलने लगा। निष्ठावान कार्यकर्ता औंधे मुंह गिरने लगे। कर्पूरी जी ने न केवल इस परिस्थिति का डटकर सामना किया, बल्कि इन प्रवृत्तियों का जमकर भंडाफोड़ भी किया। देश भर में कांग्रेस के भीतर और भी कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं, इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया। कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी।

सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी। कर्पूरी जी उस सरकार में उप मुख्यमंत्री बने। उनका कद ऊंचा हो गया। उसे तब और ऊंचाई मिली जब वे 1977 में जनता पार्टी की विजय के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने। हुआ यह था कि 1977 के चुनाव में पहली बार राजनीतिक सत्ता पर पिछड़ा वर्ग को निर्णायक बढ़त हासिल हुई थी। मगर प्रशासन-तंत्र पर उनका नियंत्रण नहीं था। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी। कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफ़ी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया।

इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो-हल्ला भी हुआ। अलग-अलग समूहों ने एक-दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए। मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा। उनका कद और भी ऊंचा हो गया। अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए।

राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए. जब करोड़ो रूपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता. उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं.

उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा. उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए. उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए.”

एक किस्सा उसी दौर का है कि उनके मुख्यमंत्री रहते, उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित करने का काम किया. ख़बर फैली तो जिलाधिकारी गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया. उनका कहना था कि दबे पिछड़ों को अपमान तो गांव गांव में हो रहा है.

एक और उदाहरण है, कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को खत लिखना नहीं भूले. इस ख़त में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, “पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना. कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना. मेरी बदनामी होगी.”

रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का फ़ायदा भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया. प्रभात प्रकाशन ने कर्पूरी ठाकुर पर ‘महान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर’ नाम से दो खंडों की पुस्तक प्रकाशित की है. इसमें कर्पूरी ठाकुर पर कई दिलचस्प संस्मरण शामिल हैं.

रोचक तथ्य

  • कर्पूरी के ‘कर्पूरी ठाकुर’ होने की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। वशिष्ठ नारायण सिंह लिखते हैं, समाजवादी नेता रामनंदन मिश्र का समस्तीपुर में भाषण होने वाला था, जिसमें छात्रों ने कर्पूरी ठाकुर से अपने प्रतिनिधि के रूप में भाषण कराया। उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर मिश्र ने कहा कि यह कर्पूरी नहीं, ‘कर्पूरी ठाकुर’ है और अब इसी नाम से तुम लोग इसे जानो और तभी से कर्पूरी, कर्पूरी ठाकुर हो गए।
  • कर्पूरी ठाकुर का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो जन्मतिथि लिखकर नहीं रखते और न फूल की थाली बजाते हैं। 1924 में नाई जाति के परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर की जन्म तिथि 24 जनवरी 1924 मान ली गई। स्कूल में नामांकन के समय उनकी जन्म तिथि 24 जनवरी 1924 अंकित हैं।
  • बेदाग छवि के कर्पूरी ठाकुर आजादी से पहले 2 बार और आजादी मिलने के बाद 18 बार जेल गए।
  • ये कर्पूरी ठाकुर का ही कमाल था कि लोहिया की इच्छा के विपरीत उन्होंने सन् 1967 में जनसंघ-कम्युनिस्ट को एक चटाई पर समेटते हुए अवसर और भावना से सदा अनुप्राणित रहने वाले महामाया प्रसाद सिन्हा को गैर-कांग्रेसवाद की स्थापना के लिए मुख्यमंत्री बनाने की दिशा में पहल की और स्वयं को परदे के पीछे रखकर सफलता भी पाई।
  • किसी को कुछ लिखाते समय ही कर्पूरी ठाकुर को नींद आ जाती थी, तो नींद टूटने के बाद वे ठीक उसी शब्द से वह बात लिखवाना शुरू करते थे, जो लिखवाने के ठीक पहले वे सोये हुए थे।

सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है।धन,  धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है॥!”

घर, जमीन, गाड़ी- कुछ भी नही

बिहार विधानसभा में कर्पूरी ठाकुर विपक्ष के नेता रहे। इसके बावजूद घर, गाड़ी और जमीन, कुछ भी नहीं था। राजनीति की इसी ईमानदारी ने उन्हें जननायक बना दिया। कर्पूरी ठाकुर समाज के पिछड़ों के विकास के लिए जितने जागरूक थे, राजनीति में परिवारवाद के उतने ही विरोधी भी थे। इसीलिए जब तक वह जीवित रहे, उनके परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं आ पाया। 17 फरवरी 1988 को उन्होंने संसार को अलविदा कह दिया, तब उनकी उम्र सिर्फ 64 साल थी।

टूटी बेंच पर बैठकर सुनते थे समस्याएं

‘बिहार राज्य पिछड़ा आयोग’ के एक पूर्व सदस्य रहे निहोरा प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर के बारे में संस्मरण साझा किया। इसमें वह कहते हैं कि मुख्यमंत्री  के रूप में कर्पूरी ठाकुर पटना में सरकारी आवास पर सुबह साढ़े सात बजे से लोगों की समस्याएं सुनने बैठ जाते। एक टूटी बेंच पर वह बैठते थे और सामने रखी टेबल भी जगह-जगह से टूटी हुई थी, जिसका कोई असर उन पर नहीं पड़ता था। वह बिहार के कोने-कोने से आए लोगों की बात बड़ी ध्यान से सुनते थे। इनमें से कई बिना चप्पल के होते थे तो कई के कपड़े मैले-कुचैले। वे लोगों की समस्याएं सुनते और अफसरों को निस्तारण के लिए आदेश देते। उनके पास गलत काम लेकर भी लोग नहीं जाते थे। बिहार ने राय बना ली थी कि ठाकुर नियम-कानून के दायरे में आने वाला कोई काम रुकने नहीं देंगे और इससे इतर होने नहीं देंगे।

घर, जमीन, गाड़ी- कुछ भी नही

एक बार निहोरा प्रसाद को कर्पूरी ठाकुर ने सुबह छह बजे बुलाया। अगले दिन तय समय पर वह सीएम आवास पहुंचे तो कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि चलिए। तब तक सीएम की गाड़ी नहीं आई थी, इसलिए वह निहोरा प्रसाद की मोटर साइकिल पर ही सवार हो गए। इस दौरान उनका पैर भी छिल गया। मोटर साइकिल पर बैठने के बाद उन्होंने निहोरा प्रसाद से बेली रोड चलने के लिए कहा। अब रास्ते में जो भी बाइक से मुख्यमंत्री को जाते देखता, वही ठिठक जाता। कुछ प्रणाम-नमस्कार करते तो कुछ अचंभे में खड़े रह जाते। इसी दौरान मुख्यमंत्री ने निहोरा प्रसाद को बताया कि कुछ विदेशी पत्रकार मिलने आए हैं, जिन्हें एक होटल में ठहराया है। उन्हीं से सुबह होटल में आकर मिलने के लिए कहा था। इसलिए समय पर पहुंचने के लिए बाइक का सहारा लेना पड़ा।

जननायक कर्पूरी ठाकुर का जीवन परिचय KARPURI THAKUR DAK TICKET 1
  • Facebook
  • Twitter
  • Google+
जननायक कर्पूरी ठाकुर का जीवन परिचय Nitish Kumar paying tribute to Karpoori Thakur
  • Facebook
  • Twitter
  • Google+

बिहार में पहली बार लागू की थी शराबबंदी

ठाकुर का राजनीतिक करियर कई महत्वपूर्ण पड़ावों से भरा रहा. बिहार में पहली बार शराबबंदी का श्रेय भी कर्पूरी ठाकुर को जाता है. उन्होंने 1977 में मुख्यमंत्री के रूप में बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू की थी. यह सामाजिक सुधार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इसके अलावा, उन्होंने विशेष रूप से बिहार के अविकसित क्षेत्रों में कई स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि शिक्षा उन लोगों के लिए सुलभ हो जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर थे.

‘कभी विधानसभा चुनाव नहीं हारे’

कर्पूरी ठाकुर बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. मुख्यमंत्री के रूप में दोनों कार्यकाल को मिलाकर कुल ढाई साल बिहार का शासन उनके हाथ में रहा. लोगों के बीच इतने लोकप्रिय थे कि 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे. 

‘अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में हटाया’

कर्पूरी ठाकुर का प्रभाव उनकी प्रशासनिक भूमिकाओं से परे तक फैला हुआ था. एक नेता के रूप में वे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के उत्थान को लेकर बहुत चिंतित रहते थे. मैट्रिक स्तर पर अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेजी को हटाकर चर्चा में आए थे. तब वे बिहार के शिक्षा मंत्री थे. इस कदम के पीछे यह सुनिश्चित करना था कि शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों को परेशानी ना हो और वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें. कर्पूरी ठाकुर की नीतियों और पहल का असर बिहार में पिछड़ी राजनीति के उदय में देखा जा सकता है. उनके काम ने पिछड़े वर्गों के सशक्तिकरण की नींव रखी, जिसने बाद में जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के गठन को प्रभावित किया.

‘फटा कोट पहनकर चले गए थे विदेश’

एक और किस्सा कर्पूरी ठाकुर के बारे में मशहूर है. 1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने थे. उन्हीं दिनों उनका ऑस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में चयन हुआ था. उनके पास कोट नहीं था. तो एक दोस्त से कोट मांगा गया. वह भी फटा हुआ था. खैर, कर्पूरी ठाकुर वही कोट पहनकर चले गए. वहां यूगोस्लाविया के शासक मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ्ट किया गया.

राजनीतिक जीवन

1977 में कर्पुरी ठाकुर ने बिहार के वरिष्ठतम नेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा से नेतापद का चुनाव जीता और दो बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। लोकनायक जय प्रकाश नारायण एवं समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया इनके राजनीतक गुरु थे। राम सेवक यादव एवं मधु लिमये जैसे दिग्गज साथी थे। लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, राम विलास पासवान और सुशील कुमार मोदी के राजनीतिक गुरु हैं। बिहार में पिछड़ा वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था 1977 में की । सत्ता पाने के लिए 4 कार्यकम बने-

1. पिछड़े वर्ग का ध्रुवीकरण
2. हिंदी का प्रचार प्रसार
3. समाजवादी विचारधारा
4. कृषि का सही लाभ किसानों तक पहुंचाना।

सन १९६७ में जब वे पहली बार बिहार के उपमुख्यमन्त्री बने तब उन्होने बिहार में मैट्रिक परीक्षा पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। इसके पीछे उनका सुचिंतित तर्क था। उस काल में अंग्रेजी के कारण अधिकांश लड़कियां मैट्रिक पास नहीं कर पाती थीं। इस कारण लड़कियों के विवाह में मैट्रिक की परीक्षा पास करना बड़ी अड़चन बन गया था।

कर्पूरी ठाकुर ने इसका आकलन-अध्ययन कराया तो पता चला कि अधिकतर छात्र अंग्रेजी में ही अनुतीर्ण होते हैं। यह वह समय था जब छठी या आठवीं क्लास से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू होती थी। यानी अंग्रेजी का ज्ञान देर से शुरू होता था और मैट्रिक का परिणाम खराब होने का यह कारण बनता। इसी उद्देश्य से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी विषय में पास करने की अनिवार्यता खत्म कर दी थी। इस प्रकार उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुँचाया। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था।

भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, ठाकुर ने अपने गांव के स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया। वे 1952 में ताजपुर निर्वाचन क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधानसभा के सदस्य बने । 1960 में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की आम हड़ताल के दौरान पीएंडटी कर्मचारियों का नेतृत्व करने के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया था। 1970 में, उन्होंने टेल्को मजदूरों के हित को बढ़ावा देने के लिए 28 दिनों तक आमरण अनशन किया।

ठाकुर हिंदी भाषा के समर्थक थे और बिहार के शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने मैट्रिकुलेशन पाठ्यक्रम के लिए अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेजी को हटा दिया। यह आरोप लगाया जाता है कि राज्य में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के निम्न स्तर के कारण बिहार के छात्रों को नुकसान उठाना पड़ा। 1970 में बिहार के पहले गैर -कांग्रेसी समाजवादी मुख्यमंत्री बनने से पहले ठाकुर ने बिहार के मंत्री और उपमुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। उन्होंने बिहार में शराब पर पूर्ण प्रतिबंध भी लगाया। उनके शासनकाल के दौरान, बिहार के पिछड़े इलाकों में उनके नाम पर कई स्कूल और कॉलेज स्थापित किए गए।

शिक्षाविद एस.एन. मालाकार, जो बिहार के सबसे पिछड़े वर्गों (एम.बी.सी.) में से एक हैं और जिन्होंने 1970 के दशक में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (ए.आई.एस.एफ.) से जुड़े एक छात्र कार्यकर्ता के रूप में कर्पूरी ठाकुर की आरक्षण नीति का समर्थन करने वाले आंदोलन में भाग लिया था, का तर्क है कि बिहार के निम्न वर्ग – एम.बी.सी., दलित और उच्च ओ.बी.सी. ने जनता पार्टी सरकार के समय में ही आत्मविश्वास हासिल कर लिया था। [ इस अनुच्छेद को उद्धरण की आवश्यकता है ]

बुलंदशहर के चेत राम तोमर उनके करीबी सहयोगी थे। समाजवादी नेता ठाकुर जय प्रकाश नारायण के करीबी थे । भारत में आपातकाल (1975-77) के दौरान , उन्होंने और जनता पार्टी के अन्य प्रमुख नेताओं ने भारतीय समाज के अहिंसक परिवर्तन के उद्देश्य से “संपूर्ण क्रांति” आंदोलन का नेतृत्व किया।

1977 के बिहार विधान सभा चुनाव में सत्तारूढ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जनता पार्टी के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन) , चरण सिंह की भारतीय लोक दल (बीएलडी), जनसंघ के समाजवादी और हिंदू राष्ट्रवादियों सहित विभिन्न समूहों का एक हालिया मिश्रण था । इन समूहों के एक साथ आने का एकमात्र उद्देश्य प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हराना था, जिन्होंने देश भर में आपातकाल लगाया था और कई स्वतंत्रताओं को सीमित कर दिया था। समाजवादी और बीएलडी पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे और कांग्रेस (ओ) और जनसंघ उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे।

जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद , ठाकुर बिहार जनता पार्टी के अध्यक्ष सत्येंद्र नारायण सिन्हा , जो पहले कांग्रेस [ओ] के थे, के खिलाफ विधायक दल का चुनाव १४४ से ८४ के अंतर से जीतकर दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के ठाकुर के फैसले के सवाल पर पार्टी में अंदरूनी कलह छिड़ गई, जिसने सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी। जनता पार्टी के उच्च जाति के सदस्यों ने ठाकुर को मुख्यमंत्री के पद से हटाकर आरक्षण नीति को कमजोर करने की कोशिश की। दलित विधायकों को दूर करने के लिए, राम सुंदर दास , जो स्वयं दलित थे, को उम्मीदवार बनाया गया। हालांकि दास और ठाकुर दोनों समाजवादी थे, दास को मुख्यमंत्री की तुलना में अधिक उदार और मिलनसार माना जाता था। ठाकुर ने इस्तीफा दे दिया और दास २१ अप्रैल १९७९ को बिहार के मुख्यमंत्री बने। जनता पार्टी में आंतरिक तनाव के कारण पार्टी कई गुटों में विभाजित हो गई जिसके कारण 1980 में कांग्रेस सत्ता में लौट आई। हालाँकि, वह अपना पूरा कार्यकाल नहीं निभा सके क्योंकि वह 1979 में राम सुंदर दास से नेतृत्व की लड़ाई हार गए, जिन्हें उनके विरोधियों ने उनके खिलाफ खड़ा किया था और उनकी जगह उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया।

जुलाई 1979 में जब जनता पार्टी का विभाजन हुआ, तो कर्पूरी ठाकुर ने निवर्तमान चरण सिंह गुट का साथ दिया। वे 1980 के चुनावों में जनता पार्टी (सेक्युलर) के उम्मीदवार के रूप में समस्तीपुर (विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र) से बिहार विधानसभा के लिए चुने गए । बाद में उनकी पार्टी ने अपना नाम बदलकर भारतीय लोक दल रख लिया और ठाकुर 1985 के चुनाव में सोनबरसा निर्वाचन क्षेत्र से इसके उम्मीदवार के रूप में बिहार विधानसभा के लिए चुने गए। इस विधानसभा के अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही उनका निधन हो गया।

ठाकुर को गरीबों के चैंपियन के रूप में जाना जाता था। १९७८ में, कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए २६% आरक्षण मॉडल पेश किया। इस स्तरित आरक्षण व्यवस्था में, अन्य पिछड़ा वर्ग को १२%, सबसे पिछड़ा वर्ग को ८%, महिलाओं को ३% और उच्च जातियों में से आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (ईबीडब्ल्यू) को राज्य सरकार की नौकरियों में ३% आरक्षण मिला। १९७७ में; देवेंद्र प्रसाद यादव ने बिहार विधानसभा से इस्तीफा दे दिया और ठाकुर के लिए फुलपरास विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव लड़ने का मार्ग प्रशस्त किया। ठाकुर ने कांग्रेस के राम जयपाल सिंह यादव को हराकर ६५००० मतों के अंतर से जीत हासिल की । ​

ठाकुर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्हें लालू प्रसाद यादव , रामविलास पासवान , देवेंद्र प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे प्रमुख बिहारी नेताओं का गुरु कहा जाता है ।

‘विरासत में देने के लिए मकान तक नहीं था’

कर्पूरी ठाकुर के बारे में कहा जाता है कि उनकी ईमानदारी भी एक मिसाल है. राजनीति में इतना लंबा सफर बिताने के बाद जब उनका निधन हुआ तो अपने परिवार को वसीयत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए.

‘5 एकड़ से कम जोत पर मालगुजारी खत्म कर दी’

कर्पूरी ठाकुर ने शिक्षा मंत्री रहते हुए छात्रों की फीस खत्म कर दी थी और अंग्रेजी की अनिवार्यता भी खत्म कर दी थी. उन्होंने उन खेतों पर मालगुजारी खत्म कर दी, जिनसे किसानों को कोई मुनाफा नहीं होता था. साथ ही 5 एकड़ से कम जोत पर मालगुजारी खत्म कर दी थी. उर्दू को राज्य की भाषा का दर्जा दे दिया था.

‘जब देवीलाल ने कर्पूरी की मदद के लिए दिखाई दिलचस्पी’

यूपी के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा- ‘कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा. बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा. हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं. जननायक कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था. कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे. कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर बहुगुणा रो पड़े थे|

‘ठाकुर की विरासत को आगे बढ़ाने का प्रयास…’

आजादी के बाद पहली बार बिहार में हुए हालिया जाति सर्वे में कर्पूरी ठाकुर की विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश की गई. सर्वे से पता चला कि पिछड़ा समुदाय बिहार की आबादी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा है, जिसमें अत्यंत पिछड़े समुदाय 36.01% और पिछड़ी जातियां 27.12% शामिल हैं. इस डेटा में राजनीतिक रणनीतियों को नया आकार देने और नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए रिजर्वेशन भी बढ़ा दिया गया है.

परंपरा

  • बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 17 फरवरी 2023 को कर्पूरी ठाकुर को श्रद्धांजलि देते हुए।
  • कर्पूरी ठाकुर के जन्मस्थान, पितौंझिया का नाम 1988 में उनकी मृत्यु के बाद कर्पूरी ग्राम (हिंदी में “कर्पूरी गांव”) रख दिया गया।
  • 100 रुपए मूल्य का स्मारक सिक्का जारी किया गया |
  • बक्सर में जन नायक कर्पूरी ठाकुर विधि महाविद्यालय (लॉ कॉलेज) का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है।
  • बिहार सरकार ने मधेपुरा में जननायक कर्पूरी ठाकुर मेडिकल कॉलेज खोला .
  • डाक विभाग ने उनकी स्मृति में एक स्मारक टिकट जारी किया।
  • जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल के बीच विरासत को लेकर खींचतान
  • भारतीय रेलवे द्वारा दरभंगा और अमृतसर के बीच चलने वाली जन नायक एक्सप्रेस ट्रेन ।
  • सरकार ने जन नायक कर्पूरी ठाकुर के सम्मान में अनेक कदम उठाए हैं, जिनमें राज्य में कई स्टेडियमों का नामकरण उनके नाम पर करना, कई कॉलेजों की स्थापना और अधिकांश जिलों में प्रतिमाएं स्थापित करना, कर्पूरी ठाकुर संग्रहालय, समस्तीपुर और दरभंगा में जन नायक कर्पूरी ठाकुर अस्पताल, विधानमंडल में कर्पूरी ठाकुर के भाषणों का प्रकाशन और कर्पूरी ठाकुर पर वृत्तचित्र बनाना शामिल है।
  • उनकी 100वीं जयंती के अवसर पर भारतीय डाक विभाग द्वारा एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया।

निधन

वे राजनीति में कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक चालों को भी समझते थे और समाजवादी खेमे के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी। वे सरकार बनाने के लिए लचीला रुख़अपना कर किसी भी दल से गठबंधन कर सरकार बना लेते थे, लेकिन अगर मन मुताबिक़ काम नहीं हुआ तो गठबंधन तोड़कर निकल भी जाते थे। यही वजह है कि उनके दोस्त और दुश्मन दोनों को ही उनके राजनीतिक फ़ैसलों के बारे में अनिश्चितता बनी रहती थी। कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में17 फरवरी 1988  को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था।

अमर उजाला ने 14 जनवरी 1978 के अंक में कर्पूरी ठाकुर के पिता गोकुल ठाकुर की एक तस्वीर प्रकाशित की जिसमें वह किसी की हजामत बना रहे थे। अमर उजाला ने शीर्षक दिया-“एक मुख्यमंत्री और उनके पिता का गौरव।” -चित्र परिचय में अखबार ने लिखा-“गोकुल ठाकुर ने अपने पुत्र के बारे में कहा-जहां तक मेरा संबंध है। मेरे लिए वह बेरोजगार है। वह मुझे कभी पैसा नहीं भेजता और मुझे अपना पुराना रोजगार करने में कोई संकोच नहीं।” अमर उजाला ने लिखा-“यर्थाथ में कर्पूरी ठाकुर अपना वेतन या तो पार्टी को देते हैं या दानार्थ कार्यों के लिए।”

जननायक कर्पूरी ठाकुर का जीवन परिचय karpoori thakur amar ujala 1706180220
  • Facebook
  • Twitter
  • Google+

Pin It on Pinterest

Shares
Share This