मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil
मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil : इंसान स्वार्थ व खाने के लालच में कितना गिरता है उसका नमूना होती है सामाजिक कुरीतियां। ऐसी ही एक पीड़ा देने वाली कुरीति वर्षों पहले कुछ स्वार्थी लोगों ने भोले-भाले इंसानों में फैलाई गई थी वो है मृत्यु भोज। मानव विकास के रास्ते में यह गंदगी कैसे पनप गई यह समझ से परे है।
जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर दुख प्रकट करते हैं। लेकिन इंसानी बेईमान दिमाग की करतूतें देखो कि यहां किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-संबंधी भोज करते हैं। मिठाइयां खाते हैं। यह एक सामाजिक बुराई है। इसको खत्म करने के लिए हम सभी को जागरूक होकर काम करना पड़ेगा
लेकिन जब तक समाज का हर वर्ग इस पर स्व चिंतन, मनन नहीं करेगा, तब तक यह केवल कागजी कार्रवाई में ही सिमट कर रह जाएगा। ऐसे में युवाओं द्वारा सोशल वेबसाइटों पर जागरूकता अभियान चला कर जिम्मेदार नागरिक का परिचय दिया जा सकता है।
मृत्यु भोज के पीछे तर्क ?
हिंदू धर्म में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु की बारह दिन के पश्चात तेरहवें दिन मृत्यु भोज की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। यह मृत्यु भोज तेरहवें दिन ही क्यों कराया जाता है इस प्रश्न का उत्तर हमें गरुड़ पुराण से मिल जाता है जिसमें यह विदित है की दिवंगत आत्मा को उसकी मृत्यु के पश्चात 13 दिन तक 13 गांव को पार करना होता है|
गरुड़ पुराण के अनुसार यह गांव बहुत भयानक होते हैं आनंददायक नहीं होते हैं यह जंगल कांटो और अग्नि से भरा हुआ गांव होता है जिसे पार करते हुए दिवंगत आत्मा को यमराज के समक्ष उपस्थित होना होता है।
फिर उस दिवंगत आत्मा को अपने जीवन पर्यंत जाने अनजाने में किए गए पाप कर्मों के अनुसार उसे वहां दंडित किया जाता है। अतः इस 13 दिन तक दिवंगत आत्मा के परिवार के सदस्य सूतक में रहते हैं उनके घर चूल्हा नहीं जलता है। तथा उन्हें भोजन उनके गांव पड़ोस के लोगों को देना होता है जो कि वर्तमान समय में घटकर एक या दो दिन हो गया है |
उस आत्मा को अपने पाप कर्मों से मिलने वाले दंड को कम सहना पड़े इस हेतु साधु संत महात्मा तपस्वी ऋषि-मुनियों को बुला कर कुछ विशेष पूजन विधि करा कर और भोजन पका कर उस भोजन को भगवान को भोग लगाकर फिर उसका प्रसाद गांव पड़ोस के लोगों एवं रिश्तेदारों में वितरित करते हैं तो उस प्रसाद को जो जो लोग ग्रहण करते हैं तो उस दिवंगत आत्मा के इतने सारे पापों के थोड़े थोड़े भागी बनते हैं एवं इस तरह से उस दिवंगत आत्मा का पाप कम होता है किंतु आज के वर्तमान समय में यह मृत्यु भोज अपने उद्देश्य से हटकर एक विकृत रूप ले चुका है देखा जा रहा है|
अक्सर जीते जी किसी किसी इंसान को खाने को भोजन दिया जाए या नहीं उसको दवा दिया जाए अथवा नहीं किंतु उसकी मृत्यु उपरांत यदि उसके परिवार के सदस्य संपन्न है तो भी और गरीब है तो भी कर्ज लेकर के भी यह मृत्यु भोज की प्रथा निभाई जा रही है जिसमें कि गांव समाज के रिश्ते के बहुत सारे लोग एक साथ इकट्ठे होते हैं और
इस दिन और तरह-तरह के पकवान मिठाई यहां तक कि आज के समय में मिनरल वाटर में भी खर्च बहुत हो रहा है और पंडित को बहुत सारा दान किया जा रहा है।
मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil
इसमें बुराई यह देखा जा सकता है कि कुछ अमीर परिवार तो सभी रीति रिवाजों में कुछ बातें अथवा नियम अपनी सामर्थ्य के अनुसार खुद भी जोड़ लेते हैं मृत्युभोज में ढाई सौ 300 लोगों को बुलाकर बहुत शानदार ढंग से भोजन कराना जिसकी नकल कुछ गरीब परिवार भी करने लगते हैं और यह एक प्रथा से हटकर कुप्रथा बन चुका है क्योंकि इस प्रथा को निभाने में बहुत परिवार कर्ज में डूब जाते हैं तथा इसमें किसी शादी विवाह से कम खर्च नहीं लगता है।
किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें, खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाइयां परोसी जाएं, खाई जाएं, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें। इंसान की गिरावट को मापने का पैमाना कहां खोजे, इस भोज के भी अलग-अलग तरीके हैं।
- समाज में ऐसा कहा जाता है कि मृतक के आत्मा के शांति के लिए ये सब किया जाता है। ये कहाँ लिखा हुआ है समझ में नहीं आता। हम अपने पितरों को जीते जी ही अच्छे से खिलायें-पिलायें, उनकी सेवा करें तो ये अधिक उचित होगा।
ये प्रथा आयी कहाँ से! - इसके बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलता है। प्राचीन समय में ये प्रथा राजा के लिए होती थी। राजा की मृत्यु के पश्चात बारहवें दिन पगड़ी बांधने की रस्म होती थी जिसका अभिप्राय ये होता था कि मृतक के बाद अब ये उत्तराधिकारी होंगे। लेकिन अब तो यह एक कुप्रथा बन चुकी है। छोटे-बड़े सबके मृत्यु के पश्चात ये रस्म अनिवार्य बना दी गयी है। हम व्यक्तिगत रूप से तो इन कुप्रथाओं का विरोध करते हैं लेकिन सामाजिक स्तर पर जब अपने ऊपर बात आती है तो पीछे हट जाते हैं।
- अब इन कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है। हमें जागरूक होना होगा, ये खुद को समझाना होगा, शुरुआत अपने से ही करनी होगी।
समाज के लोगों ने कहा कि सभी को खुशी में भोज और दुख में शोक मनाना चाहिए। मृत्यु भोज एक गंभीर सामाजिक बुराई है। परिवार के सदस्य के खोने का दुख और इस पर भारी-भरकम खर्च का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए मृत्यु भोज से सभी को परहेज करना चाहिए।
– के. एल. सैन शिक्षाविद्द
वह मुझे तो पसन्द आया। ऐसी सामाजिक कुरीति पर शानदार कटाक्ष किया है।
जश्न-ऐ-मौत। मृत्यु भोज, एक सामाजिक कलंक
इंसान स्वार्थ व खाने के लालच में कितना गिरता है उसका नमूना होती है सामाजिक कुरीतियां। ऐसी ही एक पीड़ा देने वाली कुरीति वर्षों पहले भोले-भाल हिन्दुओं में फैलाई गई थी वो है – मृत्यु भोज मानव विकास के रास्ते में यह गंदगी कैसे पनप गयी, समझ से परे है। जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर दुःख प्रकट करते हैं|
इंसानी बेईमान दिमाग की करतूतें देखो कि यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाइयाँ खाते हैं। किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें, खुशी जाहिर करें।
लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाइयाँ परोसी जायें, खाई जायें, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें? इंसान की गिरावट को मापने का पैमाना कहाँ खोजे? इस भोज के भी अलग-अलग तरीके हैं। कहीं पर यह एक ही दिन में किया जाता है। कहीं तीसरे दिन से शुरू होकर बारहवें-तेरहवें दिन तक चलता है।
कई लोग श्मशान घाट से ही सीधे मृत्यु भोज का सामान लाने निकल पड़ते हैं। मैंने तो ऐसे लोगों को सलाह भी दी कि क्यों न वे श्मशान घाट पर ही टेंट लगाकर जीम लें ताकि अन्य जानवर आपको गिद्ध से अलग समझने की भूल न कर बैठे !
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रिश्तेदारों को तो छोड़ो, पूरा गांव का गाँव व आसपास का पूरा क्षेत्र टूट पड़ता है खाने को! तब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है। आस-पास के कई गाँवों से ट्रेक्टर-ट्रोलियों में गिद्धों की भांति जनता इस घृणित भोज पर टूट पड़ती है।
जब मैंने समाज के बुजुर्गों से बात की व इस कुरीति के चलन के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था। रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे।
मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे। परिजन बिछुड़ने के गम को भूलने के लिए मानसिक सहारा दिया जाता था। लेकिन हम कहाँ पहुंच गए! परिजन के बिछुड़ने के बाद उनके परिवार वालों को जिंदगी भर के लिए एक और जख्म दे देते है जीते जी चाहे इलाज के लिए 2,00 रुपये उधार न दिए हो लेकिन मृत्यु भोज के लिए 6-7 लाख का कर्जा ओढ़ा देते है।
ऐसा नहीं करो तो समाज में इज्जत नहीं बचेगी! क्या गजब पैमाने बनाये हैं हमने इज्जत के? इंसानियत को शर्मसार करके, परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना! कहीं-कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम की मनुहार भी करनी पड़ती है। इसका खर्च मृत्यु भोज के बराबर ही पड़ता है। जिनके कंधों पर इस कुरीति को रोकने का जिम्मा है वो नेता-अफसर खुद अफीम का जश्न मनाते नजर आते है। कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है। कपड़े, केवल दिखाने के, पहनने लायक नहीं।
बाप एक का मरा पगड़ी पुरे परिवार ने पहन ली बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस समाज में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी? बच्चे कैसे पढ़ेंगे?बीमारों का इलाज कैसे होगा?
घिन्न आती है जब यह देखते हैं कि जवान मौतों पर भी समाज के लोग जानवर बनकर मिठाइयाँ उड़ा रहे होते हैं। गिद्ध भी गिद्ध को नहीं खाता! पंजे वाले जानवर पंजे वाले जानवर को खाने से बचते है। लेकिन इंसानी चोला पहनकर घूम रहे ये दोपाया जानवरों को शर्म भी नहीं आती जब जवान बाप या माँ के मरने पर उनके बच्चे अनाथ होकर, सिर मुंडाये आस-पास घूम रहे होते हैं। और समाज के प्रतिष्ठित लोग उस परिवार की मदद करने के स्थान पर भोज कर रहे होते हैं।
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जब भी बात करते है कि इस घिनौने कृत्य को बंद करो तो समाज के ऐसे-ऐसे कुतर्क शास्त्री खड़े हो जाते है कि मन करता है कि इसी के सिर से सिर टकराकर फोड़ दूं! इनके तर्क देखिए…..
- माँ-बाप जीवन भर तुम्हारे लिए कमाकर गये हैं, तो उनके लिए हम कुछ नहीं करोगे ??
- इमोशनल अत्याचार शुरू कर देते है! चाहे अपना बाप घर के कोने में भूखा पड़ा हो लेकिन यहां ज्ञान बांटने जरूर आ जाता है!
- हकीकत तो यह है कि आजकल अधिकांश माँ-बाप कर्ज ही छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी जीवन भर की कमाई भी तो कुरीतियों और दिखावे की भेंट चढ़ गयी। फिर अगर कुछ पैसा उन्होंने हमारे लिए रखा भी है, तो यह उनका फर्ज था। हम यही कर सकते हैं कि जीते जी उनकी सेवा कर लें। लेकिन जीते जी तो हम उनसे ठीक से बात नहीं करते।
- वे खोंसते रहते हैं, हम उठकर दवाई नहीं दे पाते हैं। अचरज होता है कि वही लोग बड़ा मृत्यु भोज या दिखावा करते हैं, जिनके माँ-बाप जीवन भर तिरस्कृत रहे। खैर!
- अगर अगर माँ-बाप ने हमारे लिए कमाया है, तो उनकी याद में हम कई जनहित के कार्य कर सकते हैं, पुण्य कर सकते हैं। जरूरतमंद की मदद कर दें,
- अस्पताल-स्कूल के कमरे बना दें, पेड़ लगा दें परन्तु हट्टे-कट्टे लोगों को भोजन करवाने से कैसा पुण्य होगा? कुछ बुजुर्ग तो दो साल पहले इस चिंता के कारण मर जाते है कि मेरी मौत पर मेरा समाज ही मेरे बच्चों को नोच डालेगा! मरने वाले को भी शांति से नहीं मरने देते हो! कैसा फर्ज व कैसा धर्म है तुम्हारा ?
- आये मेहमानों को भूखा ही भेज दें ?
पहली बात को शोक प्रकट करने आने वाले रिश्तेदार और मित्र, मेहमान नहीं होते हैं। उनको भी सोचना चाहिये कि शोक संतृप्त परिवार को और दुखी क्यों करें ?? अब तो साधन भी बहुत हैं। सुबह से शाम तक वापिस अपने घर पहुँचा जा सकता है। इस घिसे-पिटे तर्क को किनारे रख दें। मेहमाननवाजी खुशी के मौकों पर की जाती है, मौत पर नहीं!! बेहतर यही होगा कि हम जब शोक प्रकट करने जायें, तो खुद ही भोजन या अन्य मनुहार को नकार दें। समस्या ही खत्म हो जायेगी।
तुमने भी तो खाया था तो खिलाना पड़ेगा !!
यह मुर्ग़ी पहले आई या अंडा पहले आया वाला नाटक बंद करो। यह समस्या कभी नहीं सुलझेगी! अब आप बुला लो, फिर वे बुलायेंगे। फिर कुछ और लोग जोड़ दो। इनसानियत पहले से ही इस कृत्य पर शर्मिंदा है, अब और मत करो। किसी व्यक्ति के मरने पर उसके घर पर जाकर भोजन करना ही इंसानी बेईमानी की पराकाष्ठा है और अब इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद तो यह चीज प्रत्येक समझदार व्यक्ति को मान लेनी चाहिए। गाँव और क़स्बों में गिद्धों की तरह मृत व्यक्तियों के घरों में मिठाइयों पर टूट पड़ते लोगों की तस्वीरें अब दिखाई नहीं देनी चाहिए।
चार उदाहरणों से जानिए इस कुप्रथा पर ब्रेक लगाने के लिए धर्मगुरु क्या कहते हैं…
- ब्रह्मभोज का बयान, लेकिन अब प्रदर्शन करने लगे लोग राज राजेश्वर मंदिर के पंडित देवेंद्र कुमार शर्मा राजपुरोहित ने कहा कि गुरुड़ पुराण में ब्रह्मभोज का बयान है, लेकिन इस स्वरूप को पूरी तरह से बिगाड़ दिया गया है। लोगों ने इसको कुरीति बना दिया। आर्थिक रूप से सुदृढ़ नहीं होते हुए भी लोगों पर मृत्यु भोज करवाने का एक भार रहता है। इससे उन्हें कर्जा तक लेना पड़ रहा है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करने के लिए तीन क्रियाएं दशा क्रिया, एकादश क्रिया और द्वादश क्रिया होती है। ऐसे में ब्राह्मण भोज करवाया जाता था।
- मृत्यु भोज कुप्रथा है, इसे बंद करना चाहिए पीपा धाम के पीठाधीश्वर संत झंकारेश्वरदास त्यागी महाराज ने कहा कि मृत्यु भोज बंद होना चाहिए। यह किसी शास्त्र में नहीं लिखा है। शास्त्रों में 12 या 13 ब्राह्मणों को भोज कराना लिखा है, लेकिन अब यह परंपरा कुरीति बन गई है। मृत्यु भोज प्रदर्शन नहीं बनना चाहिए। मृत्यु भोज जैसी कुप्रथा को लोग खुद जागरूक होकर बंद करें।
- ब्राह्मण भोज भी इसलिए, ताकि आत्मा को पुण्य मिले पंडित विनोद शर्मा श्रीराम का कहना है कि हम मृत्यु भोज के पूरी तरह खिलाफ हैं। ब्राह्मण भोज भी इसलिए कराया जाता है, ताकि आत्मा को पुण्य मिल सके। शास्त्रों में भी केवल ब्राह्मण भोज की बात कही गई है, लेकिन बहुसंख्या में लोगों को मृत्यु भोज कराना गलत है। भास्कर ने यह पहल की है। हम इससे सहमत हैं। मृत आत्मा की शांति के लिए शास्त्रों में तर्पण, मार्जना, हवन का उल्लेख है और ब्राह्मण भोज का भी उल्लेख है।
- मृत्यु भोज का सिख धर्म में कोई स्थान नहीं गुरुद्वारा के ज्ञानी प्रीतम सिंह का कहना है कि मृत्यु भोज का सिख धर्म में कोई स्थान नहीं है। गुरु ग्रंथ साहिबजी में बताया गया है कि जीते जी मां बाप की सेवा करें और आशीर्वाद लें। साधारण अखंड पाठ करवाए जाते हैं। मृत्यु भोज नहीं होना चाहिए, इसके हम सभी खिलाफ हैं।
ब्राह्मण भोज ही पर्याप्त है, मृत्यु पर हजारों लोगों को भोजन कराना उचित नहीं है, ये बंद हो| मृत्यु भोज एक सामाजिक बुराई है इसे समाज एवं परिवार से धीरे-धीरे बंद करना चाहिए। जब परिवार के किसी सदस्य का देवलोक गमन होता है तो हिंदू रीति रिवाज के अनुसार केवल हवन पूजन कर इसे सीमित मात्रा में ब्राह्मण भोजन तक करके धर्म लाभ लेना चाहिए।
– के. एल. सैन शिक्षाविद्द
धर्मगुरुओं का मत… लोकाचार में है परंपरा, अब इसे बंद किया जाना चाहिए
- मृत्यु भोज केवल वही लोग कराते हैं जिन्हें अपना नाम व साख दिखानी हो पंडित नवल किशोर शास्त्री का कहना है कि मृत्यु भोज केवल वह करते हैं, जिन्हें अपना नाम व साख दिखानी हो। शास्त्रों में मृत्यु भोज का कही उल्लेख नहीं है। परिवार ब्राह्मण को भोज करवा करवा सकता है। उन्होंने कहा कि वे दैनिक भास्कर की इस पहल का समर्थन करते हैं।
- इस प्रकार मृत्यु भोज का आयोजन आर्थिक रूप से मजबूत लोगों पर असर नहीं डालता है, लेकिन उक्त प्रथा के चलते आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के परिवार पिस रहे हैं। इस प्रथा को पूर्ण रूप से बंद कर देना चाहिए है।
- शास्त्रों में मृत्यु भोज (मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil) का कहीं उल्लेख नहीं सूरज पोल गेट स्थित काली माता मंदिर के पुजारी जय शर्मा ने इस कुप्रथा को पूर्ण रूप से बंद करने की बात कही है। उन्होंने कहा इस कुप्रथा के कारण आज गरीब तबके के परिवार को परेशानी उठानी पड़ रही है। शास्त्रों में मृत्यु भोज के आयोजन को लेकर कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
- धर्मशास्त्रों में उल्लेख ही नहीं तो मृत्यु पर भोज कराने की आवश्यकता नहीं अग्रसेन बाजार स्थित महादेव जी की छत्री मंदिर के पुजारी विजय दाधीच ने कहा कि मृत्यु भोज बन्द होना समाज की उस कुप्रथा के गाल पर तमाचा है, जिसने धनवान लोगों की पहचान को जन्म दिया है। जब किसी भी शास्त्र में इसका उल्लेख ही नहीं है तो मृत्यु भोज पर भोजन करने की क्या आवश्यकता है।
- परिवार को 12 दिन सादगी से मृतक को याद करने में पूरे करने चाहिए है। यदि कुछ करना भी है तो गरीब लोगों को भोजन करवा दें। 12वीं की रस्म पर महा भोज का आयोजन करवा कर व्यक्ति क्या दिखाना चाहता है, इसलिए मृत्यु भोज पर सख्त रूप से पाबंदी लगा देनी चाहिए है।
सामाजिक बहिष्कार की ज़रूरत
जब कोई सामाजिक बुराई किसी भी गांव या शहर पर पूरी तरह से हावी हो जाए तो उस बदलने के लिए समाज के हर व्यक्ति को एकजुट होकर इसके लिए पहल करनी पड़ती है। तभी जाकर ऐसी प्रथाओं को खत्म किया जा सकता है। ज़रूरत है कि न लोग अब मृत्यु भोज खाएं और न ही खिलाएं। अगर कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से सबल है तो वह अपने प्रियजन की मृत्यु के बाद उनकी याद में समाज के विकास में किसी भी प्रकार का योगदान दे सकता है।
जैसे गांव के लिए एंबुलेंस की सुविधा, सार्वजनिक पुस्तकालय का निर्माण, सार्वजनिक भवन निर्माण, स्कूल में ड्रेस वितरण पौधा रोपण, ज़रूरतमंदों की मदद। कहने का तात्पर्य है कि किसी की प्रियजन की मौत के बाद उनके लिए बहुत कुछ है जो किया जा सकता है, अगर समाज के लोग करना चाहे तो। इसके लिए सभी को एकजुट होकर इस व्यवस्था को चुनौती देनी होगी। इस प्रथा का सभी को इसके विरोध करना होगा और इसके बारे में जागरूकता फैलानी होगी।
किसी की मौत हो जाने पर कोई भी परिवार वैसे भी बहुत दुख की स्थिति में होता है क्योंकि उन्होंने अपने परिवार के एक सदस्य को खोया है। वह व्यक्ति ढंग से इसका दुख नहीं मना पाता क्योंकि उसे समाज के लोगों को भोज करवाने की चिंता सता रही होती है। कई दफा तो सुना होगा आपने कि कुछ लोग ज़मीन बेचकर या उधार लेकर मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil करवाते हैं।
आखिर क्यों नहीं खाना चाहिए मृत्युभोज
सभी धर्मों में अनेको कुरीतियाँ प्रचलित होती है और हिन्दू धर्म में भी ऐसी ही अनेकों कुरीतियाँ प्रचलित है जिनका कोई भी तर्क मौजूद नहीं है लेकिन फिर भी वे वर्तमान में भी अनवरत जारी है। मृत्युभोज भी एक ऐसी ही कुरीति है जिसे वर्तमान में बंद किये जाने की आवश्यकता है।
मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil खाने एवं खिलने की परम्परा हजारो सालो से कायम है लेकिन आज हम आपको बताएंगे की आखिर क्यों मृत्युभोज नहीं खाना चाह
हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है, जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वाँ संस्कार अन्त्येष्टि है। इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार ‘तेरहवीं का भोज’ कहाँ से आ टपका। किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
महाभारत का युद्ध होने को था, अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जाकर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया। दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कृष्ण ने कहा कि ’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’ अर्थात जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए।
अतः आप आज से संकल्प लें कि आप किसी के मृत्यु भोज को ग्रहण नहीं करेंगे और मृत्युभोज प्रथा को रोकने का हर संभव प्रयास करेंगे। हमारे इस प्रयास से यह कुप्रथा धीरे धीरे एक दिन अवश्य ही पूर्णत: बंद हो जायेगी।
सरकार के हस्तक्षेप की ज़रूरत
जब किसी समाज में कोई कुरीति या कुप्रथा बुरी तरह से फैली हुई होती है तब सरकार को इसमें आगे आकर इसके खिलाफ़ कानून बनाने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर कोई सामाजिक कार्यकर्ता या कोई भी व्यक्ति लोगों को इस बारे में समझता है तो ज़रूरी नहीं है कि लोग उनकी बात मानें। ऐसे में सरकार का हस्तक्षेप इन प्रथाओं को खत्म करने में अहम भूमिका निभा सकता है। इसलिए सरकार को मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil पर प्रतिबंध लगाने की ज़रूरत है। तभी जाकर इस कुप्रथा से समाज को छुटकारा मिलेगा।
देश में अन्य राज्यों को राजस्थान सरकार से प्रेरणा लेने की ज़रूरत है जिसने अपने राज्य में मृत्यु भोज पर प्रतिबंध लगाया है। राजस्थान ऐसा करनेवाला देश का पहला राज्य भी है। हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा ‘राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम-1960’ के अनुपालन को लेकर सख्त कदम उठाए गए।
वॉट्सएप करें
यदि समाज और संगठन इस कुप्रथा को पूरी तरह बंद करने के लिए सहमत हैं तो पदाधिकारी समाज की सहमति हमें वॉट्सएप पर भेज सकते हैं। हम आपकी सहमति को प्रकाशित करेंगे जिससे अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिल सके। जो पदाधिकारी नहीं हैं वे भी अपनी राय दे सकते हैं। मृत्यु भोज में शामिल नहीं होने का निर्णय लेने वाले भी सिर्फ सहमत लिखकर आप हमें xxxxxxxx पर वॉट्सएप भेज सकते हैं।
इस मृत्यु भोज तेरहवीं एक सामाजिक कुप्रथा है! | Death Feast Is A Social Evil कुरीति को मिटाने का एक ही उपाय है कि आओ आप और हम ये शपथ ले की हम इस प्रकार के आयोजनों में भोजन नहीं करेंगे…