सैन जी महाराज का जीवन परिचय

सैन जी महाराज का जीवन परिचय

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नमस्कार और जय सैंजी महाराज की बंधुओ ! इस आलेख में मैंने सैन जी महाराज के जीवन परिचय (Sainji Maharaj Ka Jivan Parichay) और उनके जीवन में घटित हुई महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी संकलित करके आप तक पहुचाने के प्रयास किया हैं | इसमें किसी भी प्रकार की त्रुटी हो तो आप मुझे उचित सुधार का सुझाव भेजे ताकि जानकरी को अपडेट किया जा सकें और सुस्पष्ट व वैधानिक जानकारी ही साझा हो सकें| तो चलिये जानने का प्रयास करते हैं संत शिरोमणि श्री सैनजी के महाराजके बारे में ……..

सैन जी महाराज का जीवन परिचय / Sainji Maharaj Ka Jivan Parichay

जीवन परिचय

संतों भक्तों को किसी देश, काल में घेरना बहुत विचित्र – सा लगता है। वे तो सर्वकालिक सत्य के उद्घोषक होते हैं। उन्होंने अपना जीवन परिचय लिखने का भी कभी प्रयत्न नहीं किया। जितना भी तथा जो भी उनके विषय में लिखा- अलिखा, जो कुछ भी प्राप्त होता है, वही उनके जीवन परिचय का आधार है। उसी पर संतोष करना पड़ेगा।

आज तक विद्वान किसी भी संत भक्त का सर्वमान्य जीवन परिचय निर्धारित नहीं कर सके। कृष्णभक्त मीरा राजरानी थी। इसके बावजूद भी आज तक उनका जन्म, जन्मस्थान, चित्तौड़ त्याग, महाप्राण – यहाँ तक कि पति तक में विद्वान सहमत – असहमत होते देखे गये हैं। कई सेमीनार इस बहस की भेंट चढ़ चुके हैं।

जन्म

संत सैन भक्त का जीवन परिचय जानने के लिए हमारे पास जो सूत्र हैं, उनमें प्रमुख हैं-

1. स्वयं की वाणी में निहित अन्त:साक्ष्य

2. संत सैन भगत के जीवन चरित्र पर रचित परचई साहित्य

3. समकालीन संत – भक्तों के जीवन चरित्र से तालमेल

संत सैन का जन्म निर्धारित करने के लिए हम दो संतों के जीवन चरित्र को आधार बना सकते हैं- स्वामी रामानन्दजी और संत पीपाजी ।

स्वामी रामानन्दजी का जन्म

नाभादास कृत भक्तमाल में स्वामी रामानन्दजी का जन्म विक्रमी संवत् 1356 बताया गया है । भक्तमाल में उनके जन्म सम्बन्धी श्लोक भी उद्धृत है

रामानन्द महामुनिस्सम भवद्वागेषु रामावनी
( 1356) युक्ते विक्रमवत्सरे घटतनौ माघासिते त्वराष्ट्र
सप्तभ्यां गुरुवासरे युजि तथा सिद्धौ प्रयागाश्रमा
च्छ्रीमद् भूसुरराजपुण्यसदनाद्वामावतारः कृती॥

इस श्लोक के अनुसार उनका जन्म (अवतार) संवत् 1356 विक्रमी मान्य है।

इसी क्रम में चौपाई भी उद्धत है-

वपु बुधि विमल बढ़े केहि भाँती
जस शीश पाड़ पक्षसित राती ॥
आठ वर्ष के भे मतिवाना
भयो यज्ञ उपवीत विधाना ॥

आप पहले एक दण्डी स्वामी के शिष्य हुए, वहाँ उन्होंने ब्रह्मचर्य युक्त विद्या सीखी। पश्चात् स्वामी राघवानन्दजी का शिष्यत्व स्वीकारा और उनसे श्रीरामषड़ाक्षर मंत्र प्राप्त कर साधना में लीन हो गये। राघवानन्दजी ने इनके मूल नाम रामदत्त से रामानन्द नाम प्रदान किया। इनकी विधि द्वारा 12 वर्ष की ही आयु थी। श्रीरामषड़ाक्षर मंत्र की साधना से काल ने इन्हें छोड़ दिया और आपको दीर्घायु का आशीर्वाद दिया।

इसके पश्चात् इन्होंने स्वामी राघवानन्दजी के साथ बहुत समय तक सत्संग किया । इन्होंने बहुत तीर्थाटन किया और ‘श्रीकृष्ण चैतन्य – चिरजीवी’ कृपा से इन्हें अष्टसिद्धि योग प्राप्त हुआ ।

स्वामीजी ने अपने गुरू राघवानन्दजी की आज्ञा पाकर अपना स्वतंत्र समुदाय चलाया। आपके द्वारा प्रवृत्त सम्प्रदाय रामावत एवं श्री रामनन्दीय सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं।

इसी क्रम में आपने जिस भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात किया। उसमें अनेक शिष्यों को आपने दीक्षित किया। आपके शिष्य-प्रशिष्य ‘एक ते एक उजागर हुए, किन्तु भक्ति आन्दोलन में जिन द्वादश शिष्यों का योगदान रहा, वे जगत प्रसिद्ध हुए। उन्हीं द्वादश शिष्यों में कबीर, पीपा, रैदास, सैन, धन्ना आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्हीं एक से एक उजागर द्वादश शिष्यों में संत भक्त सैनजी का नाम पूरे आदर के साथ लिया जाता है। भक्तमाल नाभादास के अनुसार ये सभी बारह ‘शिष्य-प्रशिष्य भागवत वेशधारी वैष्णव धूप- प्रकाश के सरीखा चारों धामों में स्थान-स्थान में भर गये एवं महात्मा संत समूह कमलों के सम विकासमान हुए। ऐसे सूर्य रूपी श्रीरामानन्द स्वामी उदित हुए।’

रामानन्दजी ने जब अपना पृथक् सम्प्रदाय चलाया और अपने शिष्यों को दीक्षित कर भक्ति भाव की स्थापना हेतु देश में चहुँदिश प्रेषित किया, तब निश्चित रूप से युवावस्था में प्रवेश कर चुके होंगे। वे दीर्घजीवी थे। साधक थे। संयमी थे। इस कारण स्वस्थ भी थे। भक्तमाल के अनुसार उनका महाप्रयाण संवत् 1467 विक्रमी को हुआ, तब वे 111 वर्ष के थे।

स्वामी रामानन्दजी गागरोन पहुँचे, तब संवत् 1455 था। उस समय रामानन्द जी की आयु 99 वर्ष ठहरती है। यदि इस आयु पर आश्चर्य नहीं किया जाये, तब यह माना जायेगा कि पीपाजी को दीक्षा देने के 12 वर्ष पश्चात् रामानन्दजी का महाप्रयाण हो गया। इसी प्रकार जब वे बाँधवगढ़ पहुँचे, तब संवत् 1435 था। धरमदास कृत परचई में दो साखियाँ इसका उल्लेख करती हैं-

सद्गुरु रामानंदजी, पहुँच्या बाँधव देस ।
सात सिस्य साधे लियां, महलां कर्यो प्रवेस ॥
संवत चौदा सौ कहूँ, पैंतीस को साल।
सैनभगत ने सिस्य कर, काट दिया भ्रमजाल ॥
इसी परचई में चौपाई कहती है-
झट महंत ने थापी मारी।  माया दूर भगाई सारी ॥
थाप लगाई रामानंदा। सयना दे मन परमानंदा ॥
पैंतीस बरस उमर जुव लागी। सयना की सुरती लिव लागी ॥

उस समय संत सैनजी की आयु 35 वर्ष थी एवं गणना के अनुसार स्वामी रामानन्दजी की आयु 79 वर्ष थी। यदि हम रामानन्दजी और सैन जी की आयु के अनुसार गणना करें, तब यह ज्ञात होता है कि जब स्वामीजी अत्यन्त वृद्ध हो चुके थे, तब सैन जी पूर्ण युवा थे । सैन को दीक्षित करने के पश्चात् वे 32 वर्ष तक जीवित रहे। इस प्रकार अनुमान हो सकता है कि पीपाजी की दीक्षा संत सैनजी के बीस वर्ष पश्चात् हुई।

संत सैनजी का जन्म

संतों के जन्म के विषय में किसी भी अभिलेख में प्रामाणिक तथ्य प्राप्त नहीं होते ।

अगस्त संहिता के अनुसार सैन जी का जन्म विक्रम संवत् 1357 रविवार पूर्वा भाद्र नक्षत्र तुला ब्रह्म लग्न मान्य है ।

अगस्त संहिता पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद का ग्रन्थ है। अगस्त संहिताकार के पास भी संत भक्तों की जन्म कुण्डलियाँ तो नहीं रही होंगी। उनकी गणना भी लोकश्रुत ही मानी जा सकती है।

यदि हम अगस्त संहिता को प्रामाणिक मान भी लें, तब भी रामानन्द और सैनजी में केवल एक वर्ष का अन्तर बैठता है।

श्याम सुन्दरदास जी ने कबीर का जन्म संवत् 1455 माना है। इसी अनुच्छेद में वे गणना के अनुसार संवत् 1456 कहते हैं। इसी प्रकार उनका परलोक वास संवत् 1505 तथा 1575 विक्रमी कहा है। इसके प्रमाण में उन्होंने दो साखियाँ भी प्रस्तुत की हैं।

दोनों तिथियों में 70 वर्ष का अन्तर है। यदि हम कबीर का जन्म 1455 मानते हैं, तब संत पीपा और संत सैनजी लगभग समकालीन माने जा सकते हैं। यही उचित एवं तर्कसंगत भी है।

स्वयं संत सैनजी ने अपने जन्म का उल्लेख कहीं नहीं किया है। फिर भी कुछ प्रसंगों में उन्होंने कुछ साखियाँ ऐसी लिखी हैं, जिनके आधार पर उनका जन्म समय ज्ञात किया जा सकता है। इन साखियों को हम इसलिए प्रामाणिक मान सकते हैं कि ये साखियाँ स्वयं सैनजी ने ही कही हैं-

जब सीताजी की मृत्यु हुई, तब संत सैन टोडा में पीपा के आश्रम में मौजूद थे। सीताजी की मृत्यु संवत् 1472 विक्रमी में हुई।

संत सैनजी और संत पीपाजी साथ-साथ टोडा से चलकर सत्संग करते हुए गागरोनगढ़ पहुँचे। वहाँ खूब सत्संग हुआ और सैनजी गागरौन तथा उसके आसपास के अंचल में पाँच बरस तक रहे। वहाँ उन्होंने खूब भजन गाए। उसी मध्य संत पीपाजी का देहान्त हो गया।

उसी पद में वे कहते हैं- अब गागरोन में रहने का क्या औचित्य है। संगत छूट गई है। यहाँ से चल पड़ना ही उचित है।

संत पीपाजी का देहान्त संवत् 1477 विक्रमी को हुआ। तब संत सैन की उम्र (साखी के आधार पर) 77 वर्ष की थी। अर्थात् उनका जन्म 77 वर्ष पूर्व संवत् 1440 विक्रमी को हुआ था। ऐसा अन्तः साक्ष्य कहता है।

इसी सन्दर्भ में हमारे पास दो परचइयाँ हैं- एक धरमदास की परचई। इस परचई का विवरण परचईकार ने भी दिया है तथा मैंने भी यथास्थान लिखा है ।

इस परचई में संत सैन के जन्म से महाप्रयाण की कथा – गाथा वर्णित है। इस परचईकार ने सैनजी को बाँधवगढ़ का वासी (निवासी) बताया है। उनके पूर्वज भी बाँधवगढ़ के थे। उनकी माता का नाम जीवनी था और पिता का नाम मुकुन्दराम था। पिता का स्वर्गवास हुआ, तब सैन गर्भ में थे। जीवनीबाई अपने मायके सोहाल, अमृतसर (पंजाब) चली गई। वहीं मामा के घर इनका जन्म हुआ|

संत माता ने सूफी संत गुरियाजी से पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद लिया था। तब गुरियाजी ने कहा था- ‘तुम्हारे पुत्र होगा। उसका नाम हुसैन के आधार पर रखना। वह खुदा का खास बंदा होगा और नेकी के रास्ते चलकर हुसैन की तरह सत्य (हक) न्याय की रक्षा करेगा ।

संयोग से जीवनीबाई के पुत्र का नाम जोशी ने ‘सयन’ रखा। सयन विश्वामित्र के पुत्र का भी नाम था। जीवनीबाई ने कहा- ‘सयन’ नाम ठीक है। इससे गुरियाजी की बात भी रह जाएगी। हुसैन का उच्चारण ‘सयन’ रह जाएगा।

सैनजी के जन्म के थोड़े दिन बाद जीवनीबाई का देहान्त हो गया। बालक सयन का पालन-पोषण उसकी मामी ने किया।” सुरतरामजी की परचई में एक साखी ने कहा है-

एक थान सयनो पिये, एक पिये निजपूत ।

बेटो करने पार्यो, मामी सुगन सपूत ॥

अपने नाम सयन के विषय में स्वयं सैन जी ने एक साखी कही है-

सयना सैना सैनया, सुणता पाक्या कान।

सैन वई सद्गुरु कृपा होयो सत को भान ॥

बारह वर्ष की उम्र में मामा ने सैनजी को नाई का काम सीखने के लिए अमृतसर उसकी मौसी के यहाँ भेज दिया। यह संवत् 1412 विक्रम का साल था ।

सैन भगत के जन्म के विषय में सुरतरामजी ने अपनी परचई में लिखा है-

संवत चवदा सौ रह्यो, सुभ तिथि अर सुभवार।

ब्रह्मकाल में धार्यो, सयना ने औतार ॥

बुदि बारस वैसाख री, जस राखे दितवार ।

माँ जीवणि रा कोख ती, सयन लियो औतार ॥

सयन (सैन) जी के नाम और अवतार का स्पष्टीकरण सुरतराम ने अपनी परचई में किया है-

अमृतसर में सयन ने अजीम नामक मुसलमान नाई के पास रहकर हजामत तथा मालिश का हुनर सीखा। वहीं निकट के गाँव में मौसी ने सैन का विवाह साहबाँ से करवा दिया। वह सब भाइयों में छोटी थी, इस कारण उसे ‘निक्की’ पुकारा जाता था। पंजाबी भाषा में निक्की अर्थात् ‘छोटी’ । मालवी, राजस्थानी में यही अर्थ ‘नानी’ का होता है।” यहीं पर सैन का सम्पर्क संत गुरिया जी से हुआ। उनके सत्संग से उनमें अध्यात्म के भाव जागने लगे ।

सैनजी निक्की को साथ लेकर वापिस सोहाल मामा के घर लौट आए। कुछ दिन मामा के घर रहे। नाई का काम किया। एक दिन मामा ने कहा- ‘सैन, अब तुम अपने मूल ठिकाने बाँधवगढ़ जाओ। वहाँ अपना घर सुधारो और राजा को अर्जी देकर राज नाई बनो। वह तुम्हारा अधिकार है।’

सैनजी निक्की के साथ बाँधवगढ़ पहुँचे। वहाँ उन्हें राज नाई की सेवा मिल गई। उनके जीवन में अनेक घटनाएँ हैं, जो बहुत प्रेरक हैं, यथा- संतों के भोजन के लिए सेऊ को अपना सिर कटवाना। फिर जीवित हो जाना। सेऊ उनका पुत्र था। इसका नाम सेवाराम था। सेवा से सेवू तथा फिर ‘सेऊ’ कहलाया ।

उनके जीवन की सबसे विशेष घटना थी- उनकी उपस्थिति में स्वयं हरि का सैन रूप धारण कर राजा की खवासी करना। इस घटना ने सैनजी का जीवन बदल दिया और वे राजचाकरी से मुक्त हो गये। स्वयं राजा बाँधवगढ़ बघेला उनका भक्त हो गया।

सैन भक्त की भगवत् भक्ति का ये प्रमाण अभी दर्शाया गया है। ऐसे कई प्रमाण उनके भक्ति संबंध में प्राप्त हुये है। उन सभी का उल्लेख करना यहां संभव नहीं होगा। अतः मैं आपका ध्यान उनके द्वारा रचित भजन की ओर आकर्षित कर उनकी महानता का परिचय देना अपना कर्तव्य मान रहा हू। उन्होंने संकेत दिया है कि जन्म लोक न्हीवीन चे उदरी अर्थात नायिन माता के गर्भ से मेरा जन्म हुआ है। जिनका गौत्र बनभैरू (गौहिल) था। पिता का नाम श्री देवीदास जी, माता कुवंरबाई, पत्नि गजरा देवी और उनके दो पुत्र व एक पुत्री का उल्लेख भी मिलता है।

सैन जी महाराज रामानंद जी के समावत सम्प्रदाय से दीक्षित थे। वे श्री राम सीता और हनुमान जी की उपासना करते थे। अपने भजनों में उनका गुणगान करते थे। वे एक उच्च कोटी के भक्त कवि माने गये है। उन्होंने हिन्दी मराठी गुरुमुखी और राजस्थानी में सैन सागर ग्रंथ रचा जिसमें 150 गीतों का उल्लेख मिलता है।

गुरुग्रंथ साहब में भी श्री सैन जी के कुछ पद संकलित है। भक्त सैन ने उस समय की एकता व प्रेम मूलक समाज को अपने भजनों में माध्यम बनाये रखा।

ऐसे हुए भक्त सैन नाई जी| कबीर और रविदास जी की तरह आप की महिमा बेअन्त है| इस भक्त के बारे में भाई गुरदास जी लिखते हैं –

सुन प्रताप कबीर दा दूजा सिख होआ सैन नाई|
प्रेम भगति राती करे भलके राज दुवारै जाई|
आए संत पराहुने कीरतन होआ रैनि सबाई|
छड न सकै संत जन राज दुआरि न सेव कमाई|
सैन रूप हरि होई कै आया राने नों रिझाई|
रानै दूरहु सद के गलहु कवाई खोल पैन्हाई|
वस कीता हऊ तुध अ़ज बोलै राजा सुनै लुकाई|
प्रगट करै भगतां वडिआई|

अखिल भारतीय सैन समाज

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